
उधार की परिकल्पना
Read Count : 142
Category : Poems
Sub Category : N/A
तथाकथित निरपेक्षता के यथार्थ से वंचित
मेरी ये परिकल्पना
जाड़े के धुंधली गोधुल सी दिखती,
मानो कोसो दूर ,
संवेदनाओं का दीपक जलाजो घटा न हो ,
सो किस्सा सही ,
उजाले के ओट मै,
परछाई का हिस्सा सही
मेरी ही कल्पनाओं के सागर मै ,
डूबती मेरी तारिणी,
ओत प्रोत मै पोत सी
,मंझधार मै
मेरी परिकल्पना
सबके विश्व भिन्न भिन्न है
मेरा विश्व विहीन,
ख़लक की ललक से विपरीत
मेरी ये परिकल्पना
सोचती हूं
यथार्थ का ऐनक हटा,
उधार ले ही लू परिकल्पना.....
__तुषारिका__