सुख देने का संस्कार
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*सुख देने का संस्कार*मन की धरा क्यों है आखिर, इतनी शुष्क तुम्हारीदिल की तिज़ोरी पर, क्यों लगाई इतनी पहरेदारीरखते हो ऐसी चाहत कि, सबकुछ मैं पाता जाऊंदेना पड़े थोड़ा सा भी, तो खुद को पीछे मैं हटाऊंऐसा लालच अपने अन्दर, किसलिए तुमने पालानिकल गया है शायद तेरी, बुद्धि का पूरा दिवालास्वार्थी को दिखता नहीं, अपने सिवाय कोई औरकभी ना मिलता उसको, जीवन में शांति का ठौरसबकुछ पाकर भी, मन से खाली ही रह जाएगालेने में उतना सुख नहीं, जितना देने में तू पाएगात्यागकर स्वार्थीपन तू, सोच ले औरों का फायदालाभ तुझे भी होगा जब, तू अपनाएगा ये कायदाजीवन में सुख शांति का, अनुभव तब ही पाएगाऔरों को सुख देने का जब, तू संस्कार जगाएगा*ॐ शांति**मुकेश कुमार मोदी, बीकानेर, राजस्थान*
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