ख्वाब
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Category : Poems
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रातों के कुछ पल को चुराकर
एक प्यारा सा ख्वाब बुना था
सपने देखने की हमारी औकात नहीं
बचपन से बस यही सुना था
शायद इसलिए दिल ने मेरेसपनों को छोड़ना चुना था
वक्त का पासा पलटता है
उम्र के साथ साथ ख्वाब भी बढ़ता है
बढ़ते ख्वाब को अंदर समेत नहीं पाता हूं
तोड़कर कब्र निकलने से उसे फिर रोक नहीं पाता हूं
लेकिन अब बचपन वाली बात नहीं थी
थोड़ा खुद को तो थोड़ा जमाने को जान चुका था
जान चुका था,कि सपने हैसियत के मोहताज नहीं होते
हमेशा अमीरों के सर पर ही ताज नहीं होते
शायद इसलिए अपनों के नाराजगी के बाद भी
ख्वाबों के सहारे चलने लगा था
लाख समझाया लोगों ने
फिर भी सपनों की और मैं बढ़ने लगा था
वक्त ने फिर से खेल दिखलाया
मेरे जीवन में एक नया मोड़ आया
पहले हालातों का मारा था
अब जिम्मेदारियों ने वापस बुलाया
ख्वाबों को फिर किसी गुमनाम गली में छोड़
उल्टे पैर भागा चला आया
देखते हैं अब वक्त कौन सा नया तोड़ लायेगा
अगली बार न जाने मुझे कहां छोड़ आयेगा
फिलहाल तो जिंदगी की कसौटी पर उतरने की कोशिश करता जा रहा हूंवक्त की उंगली पकड़ के बस चलता जा रहा हूं बस चलता जा रहा हूं
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