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[5/15, 9:20 AM] Rahul: *.. भाग-17... प्रेम गली..अति सांकरी...*
        जो सबसे प्यारा होता है, जो आंखों का तारा होता है, वही यदि आंखों से दूर होता है, तो विरह उत्पन्न होना स्वाभाविक ही है... सदा ही उसके दीदार का इंतजार रहता है... दिल मचल के कहता है कि तू पुकारे ना पुकारे, हम चले आएंगे, तू आए ना आए हम चले आएंगे l दूर होने पर होठों पर प्रिय का नाम और दिल में सदा प्रिय से मिलन की तड़प बनी रहती है l

_*अरथ न धरम न काम रूचि गति न चहउँ निरबान।*_
_*जनम जनम रति राम पद यह बरदान न आन।।*_

मुझे तो केवल जन्मों-जन्मों के लिये श्री रामचन्द्रजी के चरणों में प्रेम चाहिये, कुछ और नहीं चाहिये, अर्थ क्यों नहीं? क्योंकि इस अर्थ ने अयोध्या में इतना बड़ा अनर्थ कर दिया, आखिर मेरे माँ के भीतर अर्थ की ही कामना आयी थी।

धर्म की भी मैं माँग छोड रहा हूँ, सत्य को ही धर्म कहा है, मुझे ऐसा सत्य भी नहीं चाहिये जिस सत्य की दुहाई ने सत्य नारायण को ही अयोध्या से बाहर कर दिया, ना मुझे काम में कोई रूचि है क्योंकि इस कामना के वशीभूत होकर मेरे पिता ने इतना गलत निर्णय ले लिया, मोक्ष तो माँगे कौन? सिर्फ जन्म जन्मान्तरों तक श्रीराम के चरणों का अनुराग दे दो।

*सीता राम चरण रति मोरे, अनुदिन बढहिं अनुग्रह तोरें।*
*चातक रटनि घटे घटि जाई, बढ़हिं प्रेम सब भाँति भलाई।।*

रति श्रीराम के चरणों में चाहिये और मेरे प्रेम को कभी पूर्णिमा नहीं आनी चाहिये, श्री भरतजी की वाणी सुनकर त्रिवेणी धन्य हो, धन्य हो ऐसा बोलने लगी और कहा कि भरतजी ये परमात्मा के चरणों का प्रेम तो कोई साधु ही दे सकता है, हमारी ये घोषणा है कि •••

_*तात भरत तुम्ह सब बिधि साधू, राम चरण अनुराग अगाधू।*_
_*बादि गलानि करहु मन माहीं, तुम्ह सम राम कोउ प्रिय नाहीं।।*_

त्रिवेणीजी कहती है कि तुम तो व्यर्थ ही ग्लानि करते हो भरतजी, तुम तो स्वयं सब प्रकार से साधु हो, केश, वेश, स्वभाव से, ऐसे ही साधु का भजन भगवान करते हैं, हम घोषणा करती हैं कि रामजी को तुम्हारे समान कोई दूसरा प्रिय है ही नहीं, भगवान से क्या माँगना है ये भरतजी से सिखना चाहिये।

भरतजी प्रभु के चरणों का अनुराग माँग रहे हैं, अनुराग का अर्थ है प्रिति यानी विशुद्ध प्रेम! जिसके बिना जीने का कोई अर्थ ही नहीं हो, जिसके साथ मरना भी हो जाये तो सार्थक है, लेकिन उसके बिना जीना पडे तो व्यर्थ लगे, किसी ने बहुत सुन्दर गाया है!

_*साथी रे तेरे बिना भी क्या जीना,*_ 
_*फूलों में कलियों में, सपनों की गलियों में,*_
_*तेरे बिना कुछ कहीं ना।*_
_*तेरे बिना भी क्या जीना।।*_

राग थोड़ा शुष्क होता है जैसे धन से राग, पद से राग, लेकिन अनुराग में रस होता है इसलिये भक्त की वाणी बहुत रसीली होती है, कई बार लोग कहते है कि प्रेम ही दुख का कारण है, मीराबाई का उदाहरण दे देंगे, भाईजी ये तो प्रेम की परम दशा है, ये पीडा नहीं है, ये बहुत मीठा उलाहना है, साधा नहीं जा रहा है इसलिये मीरा गा रही है।

दर्द केवल दुखदायी ही नहीं होता अपितु सुखदायी भी होते है, कई प्रकार के दर्द होते है, जैसे प्रसव का दर्द सारे परिवार को सुख देता है, प्रसव की पीड़ा में महिला तड़प रही है लेकिन पूरे परिवार में आनन्द छाया है, क्योंकि ये नये मेहमान (बच्चे) के आगमन की सूचना हैं।

जिस परिवार में प्रसव की कराहट नहीं होती उस परिवार में उदासी छाने लगती है, परमात्मा से मन्नत माँगी जाती है कि परिवार में प्रसव की पीड़ा हो, इसलिये दुख का कारण प्रेम नहीं है, अनुराग दुख का कारण नहीं अपितु अनुराग के पात्र का कारण है दुख।

हमने किससे प्रेम किया ये कारण है, अगर हमने क्षणभंगुर से प्रेम किया है तो दुख ही मिलेगा क्योंकि प्रेम को शाश्वत होना चाहिये, आप अगर पानी के बुलबुलों से प्रेम करोगे तो दुख ही पाओगे, क्षणभंगुर की जगह शाश्वत को प्रेम का विषय बना दो तो आनन्द में डूब जाओगे।

परमात्मा को विषय बनाओ दुख नहीं होगा, यही भक्ति है, संतजन डंका पीट पीट कर कह रहे है, प्रेम की महिमा तो देखो, अगर झूठ पर भी बरसती है तो झूठ भी सत्य लगने लगता है, भले क्षण भर को क्यो न लगे, अगर यही प्रेम परमात्मा से लगाओगे तो आनन्द ही आनन्द हैं।

हमने धन से प्रेम किया, हमने तन से प्रेम किया इसलिये हमने दुख पाया, अरे भाई अगर साँप-बिच्छू से दोस्ती करोगे तो एक न एक दिन डंक तो मारेंगे ही, ये कसूर प्रेम का नहीं है, ये कसूर मित्रता का नहीं है, हमने किससे की इसलिये पीडा है, लोग कसमें खाते हैं, अरे भाई प्रेम तो सुगन्ध है इसलिये भक्ति अनुरागी होती है।

जीवन में उदासी नहीं चाहिये, उदासीन चाहिये, दोनों के अलग अर्थ हैं, उदासी का अर्थ है अब तक जिनके प्रति आकर्षित थे अब उनसे उदासी है, दिशा बदल गई धारा की, भक्त प्रेम की धारा को संसार से ईश्वर की ओर मोड देता है, अब तक संसार में दौड रहे थे अब भीतर की ओर दौडो।

अगर भीतर की ओर दौड़ोगे तो मरूस्थल में भी मरूद्यान प्रकट हो जायेगा, इसलिये अपने अनुराग को कृपया उत्तम से जोड़िये, दरिद्र से जोड़ोगे तो दरिद्रता और पूर्ण से जोड़ोगे तो पूर्णता, अन्यथा रोते रहोगे, भरतजी का प्रेम बड़ा दिव्य है l

*...... क्रमशः.......*

डॉ गोविंदराम शर्मा फलवा
 प्रधानाचार्य आसावरा 
10 मई 2020
[5/15, 9:20 AM] Rahul: *.. भाग-15... प्रेम गली..अति सांकरी...*
    प्रेम की कैसी विशद महिमा है ! कैसा स्वाभाविक वर्णन है l हिंदी कवियों ने विशुद्ध प्रेम का जैसा उज्जवल वर्णन किया है वैसा अन्य भाषा में कम है :
विद्यापति को देखिए :-

सेई पिरित अनुराग बखनइत तिले तिले नूतुन होइ l

   अर्थात वही प्रीति, वही अनुराग प्रशंसनीय है जो तिल तिल नवीन होता जाय l इनके कहने का तात्पर्य यह है कि प्रेम कभी पुराना नहीं पड़ता प्रेम तो हो जैसे-जैसे पुराना होता जाता है वैसे वैसे पल-पल नवीन अनुभूति प्रदान करता है l

   विद्यापति ने असीम अनुराग को इस तरह से बताया :

जन्म अवधि हम रूप निहारल नयन न निरपित भेल l
सेहो मधुर बोल श्रवनहि सूनल श्रुति पथे परस न गेल ll

     अर्थात पूरे जीवन भर हमने अपने प्रिय का रूप देखा,किंतु आंखें तृप्त नहीं हुई l जीवन भर हमने प्रियतम की वही मधुर वाणी सुनी, किंतु और अधिक वाणी सुनने की इच्छा लगातार बनी ही रही l प्रेम का यह कितना अद्भुत वर्णन है l
      अब सूरदास जी को देखिए जो कि श्री कृष्ण के बालचरित और गोपियों की विरह का मार्मिक वर्णन सुना रहे हैं :

जब तैं पनिघट जाऊं सखी री वा जमुना के तीर l
भरी-भरी जमुना उमड़ि चलत है इन नैनन के नीर ll

    कितना सुंदर वर्णन है, कितनी स्वाभाविकता, कितना सौंदर्य है, श्रीकृष्ण के विरह में गोपियां व्याकुल होकर के आपस में इस प्रकार से वार्तालाप कर रही है कि वह पनघट का हास-परिहास भी भूल चुकी है l महिलाएं पनघट पर अक्सर हास-परिहास किया करती है, किंतु यहां पर श्री कृष्ण के विरह में व्याकुल गोपियां समस्त प्रकार का हास-परिहास भूल कर के एक-दूजे से आपस में कह रही है कि हमें अनायास ही यमुना का वह किनारा याद आ जाता है, जहां पर श्रीकृष्ण की लीलाएं सुलभ हुआ करती थी और जब श्रीकृष्ण की लीलाएं याद आ जाती है, तो हमारी इन आंखों से आंसू रूपी यमुना उमड़ आती है l
        सूरदास प्रीति करने वालों से कहते हैं कि :" प्रीति करि काहू सुख न लह्यो l

फिर वही प्रेम की महिमा इस प्रकार से गाते हैं :-

देखो करनी कमल की, कीनो जल सों हेत l
प्रान तज्यो प्रेम ना तज्यो, सूख्यो सरहिं समेत l

दीपक पीर जानई, पावक परत पतंग l
तनु तो तिहि ज्वाला जरयो, चित्त न भयो रस भंग ll

      कमल का उदाहरण देते हुए सूरदास कहते हैं कि सरोवर के जल से कमल का इतना प्रगाढ़ प्रेम है कि सरोवर के जल के सूखने पर कमल अपने प्राण त्याग देता है किंतु वह प्रेम का परित्याग नहीं करता l
 पतंगे को पता है कि दीपक की लो के साथ संग से उसकी मृत्यु निश्चित है, किंतु फिर भी वह दीपक की ज्वाला में अपने आप को भस्म कर देता है, तथापि दीपक के प्रति अपनी प्रीत को जरा सी भी कम नहीं करता l
      विरह ही प्रेम का प्राण है; जिस प्रकार से प्राणों के बिना मानव शरीर का कोई अस्तित्व नहीं है, ठीक उसी प्रकार विरह के बिना प्रेम निरर्थक हैं l विरह ही यह अनुभूति करवाता है कि कोई किसी को कितना, किस हद तक प्रेम करता है; प्रेम में यदि विरह नहीं तो कुछ भी नहीं l शरीर से प्राण निकलने के पश्चात शरीर को पंच भूतों में समर्पित कर दिया जाता है; इसी प्रकार प्रेम से यदि विरह निकल जाए तो फिर वह प्रेम खाक में मिलने लायक ही रहता है l दाना तो खाक में मिलकर के गुले गुलजार हो जाता है, किंतु प्रेम के खाक में मिलने के पश्चात क्या शेष रह पाता होगा.. ,,?? प्रेम का बीजारोपण होने के उपरांत विरह उसको पल्लवित करता है, पुष्पित करता है, फलीत करता है l किंतु विरह का कदरदान होना आवश्यक है.. वो क्या जाने पीर पराई जाके पांव न फटी बिवाई... विरह परस्पर होता है .. एक तरफा विरह एक मायने में एक तरफा प्रेम ही कहलाएगा.... आग दोनों और बराबर हो तब ही तो दोनों और प्रेम बराबर हो सकता है l   
     नागमती रतन सेन के विरह में व्याकुल होकर के काली पड़ गई, किंतु रतन सेन के सिर पर पद्मावती को पाने का जुनून सवार था l नागमती का रतन सेन के प्रति विरह उसका व्यक्तिगत विरह है, रतन सेन का उसके प्रति नहीं क्योंकि रतन सेन नागमती की इच्छा नहीं करके पद्मावती की अभिलाषा कर रहा है l भर्तृहरि कहते हैं... याम चिंतयामी सततम्....

*..... क्रमशः....*

डॉ. गोविंदराम शर्मा फलवा
 प्रधानाचार्य आसावरा 
6 मई 2020
[5/15, 9:20 AM] Rahul: *.. भाग-19... प्रेम गली..अति सांकरी...*

जीवन को समझने के लिए यक्ष-युधिष्ठिर संवाद की जानकारी होना आवश्यक है;यह संवाद प्रेम की उचित जानकारी प्रदान करता है l इस संवाद में मानव जीवन की सार्थकता के साथ-साथ प्रेम तत्त्व को स्पष्ट किया गया है इस संवाद को करने के पश्चात प्रेम की भावना और अधिक स्पष्ट हो सकेगी l देखिए यक्ष युधिष्ठिर संवाद का एक अंश जिसने इच्छा तृष्णा वासना को भी स्पष्ट किया गया है तथा प्रेम की सर्व-व्यापकता,सार्वभौमिकता और आत्मवतसर्वभूतेषु की भावना को सुंदर तरीके से बताया गया है :

  यक्ष– जीवन का उद्देश्य क्या है ?
युधिष्ठिर – जीवन का उद्देश्य उसी चेतना को जानना है
जो जन्म और मरण के बन्धन से मुक्त है। उसे जानना ही मोक्ष
है।
 यक्ष– जन्म का कारण क्या है ?
युधिष्ठिर – अतृप्त वासनाएं , कामनाएं और कर्म फल , ये
ही जन्म का कारण हैं।
 यक्ष– जन्म और मरण के बन्धन से मुक्त कौन है ?
युधिष्ठिर – जिसने स्वयं को, उस आत्मा को जान लिया वह
जन्म और मरण के बन्धन से मुक्त है।
 यक्ष– वासना और जन्म का सम्बन्ध क्या है ?
युधिष्ठिर – जैसी वासनाएं वैसा जन्म। यदि वासनाएं पशु
जैसी तो पशु योनि में जन्म। यदि वासनाएं मनुष्य
जैसी तो मनुष्य योनि में जन्म।
 यक्ष– संसार में दुःख क्यों है ?
युधिष्ठिर – लालच, स्वार्थ, भय संसार के दुःख का कारण हैं।
यक्ष– तो फिर ईश्वर ने दुःख की रचना क्यों की ?
युधिष्ठिर – ईश्वर ने संसार की रचना की और मनुष्य ने अपने
विचार और कर्मों से दुःख और सुख की रचना की।
यक्ष– सुख और शान्ति का रहस्य क्या है ?
युधिष्ठिर – सत्य, सदाचार, प्रेम और क्षमा सुख का कारण है
। असत्य, अनाचार, घृणा और क्रोध दुख का कारण है ।
त्याग शान्ति का मार्ग है ।
 यक्ष– चित्त पर नियंत्रण कैसे संभव है ?
युधिष्ठिर – इच्छाएं, कामनाएं चित्त में उद्वेग उतपन्न करती हैं।
इच्छाओं पर विजय चित्त पर विजय है।
 यक्ष– सच्चा प्रेम क्या है ?
युधिष्ठिर – स्वयं को सभी में देखना सच्चा प्रेम है। स्वयं
को सर्वव्याप्त देखना ही सच्चा प्रेम है। स्वयं को सभी के
साथ एक देखना भी सच्चा प्रेम है।
यक्ष– तो फिर मनुष्य सभी से प्रेम क्यों नहीं करता ?
युधिष्ठिर – जो स्वयं को सभी में नहीं देख सकता वह सभी से
प्रेम नहीं कर सकता।
यक्ष– आसक्ति क्या है ?
युधिष्ठिर – प्रेम में मांग, अपेक्षा, अधिकार आसक्ति है।
यक्ष– चोर कौन है ?
युधिष्ठिर – इन्द्रियों के आकर्षण, जो इन्द्रियों को हर लेते हैं
चोर हैं।
यक्ष– कमल के पत्ते में पड़े जल की तरह
अस्थायी क्या है ?
युधिष्ठिर – यौवन, धन और जीवन।
 यक्ष– नरक क्या है ?
युधिष्ठिर – इन्द्रियों की दासता नरक है।
 यक्ष– मुक्ति क्या है ?
युधिष्ठिर – अनासक्ति ही मुक्ति है।
 यक्ष– सौभाग्य का कारण क्या है ?
युधिष्ठिर – सत्संग और सबके प्रति मैत्री भाव l
 यक्ष– दिन-रात किस बात का विचार करना चाहिए ?
युधिष्ठिर – सांसारिक सुखों की क्षण-भंगुरता का।
यक्ष– संसार को कौन जीतता है ?
युधिष्ठिर – जिसमें सत्य और श्रद्धा है।
 यक्ष– किसे त्याग कर मनुष्य प्रिय हो जाता है ?
युधिष्ठिर – अहंभाव से उत्पन्न गर्व के छूट जाने पर ।
 
   श्रद्धा के द्वारा प्रेम प्रगति करता है l यदि हम किसी से वास्तविक प्रेम करते हैं तो हमें उस को आत्मवत समझना चाहिए l अहम् भाव के तिरोहित होने से ही प्रेम प्रगति कर सकता है l सांसारिक सुख क्षणभंगुर है किंतु प्रेम शाश्वत है इस बात को समझना चाहिए यदि सांसारिक सुखों में प्रेम की तलाश करते हैं तो गलत है l प्रेम सौभाग्य का जनक है इसलिए सब के प्रति मैत्री भाव रखना चाहिए l इंद्रियों की दासता आसक्ति है,किंतु प्रेम में अनासक्ति का भाव भी होना चाहिए l इंद्रियों की आसक्ति प्रेम नहीं है l विरह आसक्ति अनासक्ति से परे की अवस्था है, प्रेम को मजबूत करने का मार्ग विरह है......

*.... क्रमशः....*
डॉ गोविंदराम शर्मा फलवा
 प्रधानाचार्य आसावरा 
13 मई 2020
[5/15, 9:20 AM] Rahul: *.. भाग-18... प्रेम गली..अति सांकरी...*
        जैसे कि कबीर ने  अपने अनुभव से आंखों में प्रिय को बसा कर के पुतली पर उसको विश्राम  देते हुए पलकों को बंद करने की बात कही हैं,ठीक उसी तरह से यदि आंखों में भी प्रेम बसा हुआ हो हर पल प्रिय ही दिखाई देता है, चाहे प्रिय का वियोग पल-पल दिल को जलाता हो किंतु फिर भी हर पल प्रिय का इंतजार ही रहता है और विरही-प्रेमी यादों के अनमोल पलों को अपने दिल में दीपक की तरह प्रज्वलित करके उसकी इंतजार में एक पल को एक बरस के समान गुजारता है.. प्रिय चाहे माने ना माने किंतु यह स्थिति तो रहती ही है :

*सीता राम चरन रति मोरे।*
*अनुदिन बढहिं अनुग्रह तोरे।।*

    रति काम से नहीं रति राम से चाहिये, श्री भरतजी भजन में डूबे हैं, हम सब यजन में रहते हैं, हम सब पाना चाहते हैं ये सब यजन हैं, जो हर परिस्थिति में संतुष्ट है वो भजन है, माँगने वाले को सदा शिकायत रहेगी कि मुझे कम दिया है, औरों को तूने इतना दे दिया, मुझे क्या दिया? माँगने वाला सदा प्रभु को दोष देता है।

भक्त हमेशा अनुग्रह में जीता है, अनुग्रह का अर्थ है प्रभु तूने इतना दिया है कि मैं तो इसे सम्भालने की क्षमता भी नहीं रखता, मेरी तो इतनी पात्रता भी नहीं है, ये भाव जहाँ से उठे उसे भजन कहते हैं, जो मिला है वो तो बहुत कम है मैरी पात्रता इससे बहुत ज्यादा है ऐसे भाव जहाँ से उठे उसको यजन कहते हैं, बुद्धि से पैदा हो वो यजन है।

जैसे मछली को पकड़ने के लिये जाल फेंका जाता है, भक्त का जाल उल्टा होता है, भक्त पुकारता है भगवन! तू कैसे ही मुझे अपने जाल में फँसा ले, अगर तू नहीं फँसायेगा तो मुझे ये माया का जाल फँसा लेगा, इसलिये जो फँसाती है वो बुद्धि है और जो फँसता है वो ह्रदय है, इसलिये भक्त भगवान से हमेशा ये ही कहते हैं!

अपने चरणों का दास बनाले, काली कमली के ओढन वाले।
गहरी नदिया नाव पुरानी, केवटिया या कौ नादानी।
मेरी नैया को पार लगा ले, काली कमली के ओढन वाले।
अपने चरणों का दास बनाले, काली कमली के ओढन वाले।।

अगर आप नहीं फँसाओगे तो माया मुझे फँसा लेगी, मुझे माया का दास नहीं बनना, भक्त दास बनता है परमात्मा का, इसलिये पंडित जन यजन करते हैं पर प्रेमी भजन करता है, ये जो यज्ञादि हो रहे हैं ये सब यजन हैं, ये यज्ञों अनुष्ठानों की निन्दा नहीं हैं, जो सूत्र है उस पर चर्चा कर रहे हैं।

प्रेम स्वयं करना पड़ता है जबकि अनुष्ठान यज्ञादि हमेशा किसी दूसरे से कराया जाता है, यजन दूसरे से और भजन स्वयं किया जाता है, प्रेम किसी दूसरे से कराओगे क्या? हम सिनेमाघर में दूसरे को प्रेम करते नाचते गाते देखते हैं, हम नाचें, हम गायें, हम प्रेम में डूबे, हम प्रेम में सराबोर हों ये भक्ति हैं, प्रेम ह्रदय से छलकता हैं।

पुजारी हमारे घर आकर घंटी बजाकर चला गया, उसकी ड्यूटी हो गयी, कल कोई दूसरा ज्यादा पैसा देगा तो वहाँ ड्यूटी करेगा, जिस दिन तनख्वाह नहीं दोगे उसी दिन पूजा बन्द कर देगा, उसे भी परमात्मा से कोई लेना देना नहीं है, हमको भी परमात्मा से कोई लेना देना नहीं है अन्यथा बीच में किसी को रखने की क्या आवश्यकता थी ?

हमको नहीं आता विधि विधान मान लिया, हमें शास्त्र के नियम व्यवस्थायें नहीं आती मान लिया, आप प्रश्न करेंगे कि फिर करें क्या? अरे करना क्या है, परमात्मा के चरणों में बैठकर थोड़ी देर रो लेते, अपनी टूटी-फूटी भाषा में कुछ बात कर लेते, अपनी भाव भरी प्रार्थना खुद रच लेते, माँ गोद में बच्चे को खिलाती है वो कौन सा प्रशिक्षण लेकर आयी है कि बच्चे को कैसे खिलाया जाता है?

वो पागलों की तरह उससे घन्टों बतियाती रहती है, बालक न जानता है न सुनना जानता है, छाती से लगाये घंटो बातें करती है, ये ह्रदय की भाषा है, ये ह्रदय से जाकर टकराती है इसलिये हमें शास्त्र, मन्त्र, विधि-विधान नहीं आते तो ना आयें, हम ठाकुरजी के पास बैठकर उन्हें बता तो सकते हैं कि हमें कुछ आता नहीं।

*केहि विधि अस्तुति करहुँ तुम्हारी, अधम जाति मैं जडमति भारी।*
*अथम ते अधम अधम अति नारी, तिन्ह महँ मैं मतिमंद अधारी।।*

दण्डकारण्य में शबरी अकेली थी क्या? कितने ऋषि-मुनि द्वार खड़े स्वस्तिक-वाचन का पाठ कर रहे थे, पुष्प हार लिये खड़े थे, भगवान ने किसी की ओर देखा तक नहीं, सीधे शबरी के आश्रम पग धरा, प्रभु विधि की ओर नहीं निधि की ओर आकर्षित होता है, शबरी को तो कोई विधि आती ही नहीं।

जैसे हमने सुना है कि बालक ने परमात्मा को क ख ग ही सुना दिया, कह दिया भगवन! मंत्र जैसा चाहो अपनी पसन्द का बना लेना, आप कृपया अपनी वर्णमाला तो सुनाइये परमात्मा को, और इसकी भी क्या आवश्यकता है? क्या भगवान हमारे भाव को समझता नहीं है।

"बैर भाव मोहि सुमिरहिं निसिचर" जब बैर भाव ऐसा हो सकता है तो प्रेम भाव कैसा होता होगा, आप कल्पना किजिये, हम मंदिर जाते हैं, क्या भाव है? कुछ माँगने जा रहे हैं तो यजन है, चढाने जा रहे है तो भजन हैं, लेकिन चार सेब चढाकर चालीस गुना प्रभु से माँगने जा रहे हैं।

ह्रदय में भीतर सूची भरी हुई है कि ये माँगना है वो माँगना है जहाँ से हम लेने जाते है वो दुकान है और जहाँ हम देने जाते है वो मंदिर हैं इसलिये भगवत प्रेम के बिना जितने भी अनुष्ठान हैं वो सब यजन हैं।

भक्त की पहली और अन्तिम चाह यही होती है कि प्रभु प्रसन्न रहें । भरतलाल अपनी कामना व्यक्त करते हैं , लेकिन यह नहीं चाहते कि रामजी दुःख सहकर उनकी बात को मानें । भक्त केवल भगवान् से ही माँगता है ; और किसीसे माँगने की उसकी इच्छा नहीं होती है । कभी यदि भक्त माँगने के लोभ में फँसा भी तो भगवान् उसे बचा लेते हैं । 

एक महात्माजी को किसी चीज की जरूरत आ पड़ी । वे राजा के पास माँगने गये । पता चला , राजा पूजा कर रहे हैं । महात्माजी भी पूजा की बात सुनकर भावमय हो गये । लौटकर राजा ने उन्हें प्रणाम किया और आने का कारण पूछा , तो महात्माजी संकोच में पड़ गये -- "मैं आपको राजा समझकर कुछ माँगने आया था । किन्तु अब इच्छा नहीं रही। मैंने अपने भाव - जगत् में देख लिया कि पूजा के समय आप भगवान् से और धन - दौलत माँग रहे थे । मुझे लगा , यह राजा तो भिखारी है । मैं इससे क्यों माँगूँ । मुझे प्रभु से ही माँगना चाहिए । "

भगवान् ने भक्त को बचा लिया । किसी और के सामने हाथ पसारने की लज्जा उसे नहीं उठानी पड़ी । भगवान् हमेशा इसी तरह भक्तों को बचाते हैं।

भरत एकान्तभाव से रामजी के भक्त थे । उन्हें किसी और से कुछ  पाना नहीं था । वे श्रीरामजी को प्रसन्न रखकर ही संसार का सबकुछ पा लेने में विश्वास रखते थे ।

जब गुरु वसिष्ठ और मिथिलापति जनक मिलकर भरतलाल के पास आते हैं, तब पूछते हैं कि उनकी इच्छा क्या है ? राम के सामने वह कौन - सा प्रस्ताव रखना चाहते हैं ? इसपर भरतलाल का जवाब बड़ा भक्तिपूर्ण होता है ।

*आगम निगम प्रसिद्ध पुराना ।*
*सेवाधरमु कठिन जगु जाना ॥*

-- वेदशास्त्र और पुराणों में प्रसिद्ध है और सारा संसार जानता है कि सेवा का धर्म सबसे कठिन होता है ।

सेवा बिना भक्ति के नहीं हो सकती । जो किसी सांसारिक कामना के लिए सेवा करते हैं , वह उस कामना के पूर्ण हो जाने पर सेवा से शिथिल हो जाते हैं । उनका उत्साह खत्म हो जाता है । उनके उत्साह को फिर बढ़ाने के लिए कोई और कामना ढूँढ़नी पड़ती है । कामनाओं की यह कड़ी अटूट बन जाती है । आदमी इसीमें भरमता रहता है । इससे ऊपर नहीं उठ पाता है । जो सेवा कामनाहीन होती है , वह अथक होती है । ऐसे सेवक में कभी थकावट नहीं आती है । इच्छाएँ थकाती हैं । शुद्ध भक्ति उल्लासित करती है । लेकिन यह होती कठिन है । बिना कुछ पाने की चाह किये सेवा करते जाना एक साधना है । इसमें आदमी  को अपने अहङ्कार को भी मारना पड़ता है । स्वामी की हर इच्छा को पूर्ण करने के लिए सदैव तत्पर रहना पड़ता है । यह तत्परता बुद्धि की सजगता से आती है , हृदय की निर्मलता से आती है ।

*स्वामि धरम स्वारथहि बिरोधू ।*
*बैरु अंध प्रेमहि न प्रबोधू ॥*

-- स्वामी की सेवा में और स्वार्थ में बड़ा विरोध है । वैर अन्धा होता है और प्रेम ज्ञान को नष्ट कर देता है ।

भरत बहुत अच्छी तरह भक्त के हृदय को समझ रहे हैं । वह कहते हैं कि सेवक अगर स्वार्थी हो तो बात नहीं बनेगी । सेवा और स्वार्थ एक साथ नहीं चल सकते। भक्त को निस्स्वार्थ होना चाहिए । स्वार्थ से की गयी सेवा चाकरी बन जाती है । उसमें लेन - देन का भाव होता है । मात्र समर्पण उसका गुण नहीं है ।

भरतलाल यह भी कहते हैं कि वैर अन्धा होता है और प्रेम में ज्ञान नहीं रहता। जिससे दुश्मनी होती है , उसकी अच्छाइयों को , उसके गुणों को कोई नहीं देखता । जिससे प्रेम होता है , उसका दोष कोई नहीं देख पाता । उसकी बुराई किसीकी नजर में नहीं आती । वैर और प्रेम में आदमी अतिवादी होता है । दोनों दो तरह के भावों के सीमान्त हैं । दोनों के पास सहज दृष्टि नहीं होती ।  दोनों शान्तचित्त नहीं होते । तीव्रता, आवेश दोनों के गुण हैं । एक देख नहीं पाता तो दूसरा देखते हुए भी अनदेखा करता है । दुश्मन को देखकर आदमी विवेक की आँखे खो बैठता है । प्रेमी को पाकर वह उसके दोष - दुर्गुण को भुला देता है । दोनों ओर भावना का बहाव ही प्रबल होता है । लेकिन इन दोनों से अलग है भक्ति । वहाँ भाव सम होता है ; विवेक बना रहता है ; दोष - दुर्गुण दिखाई देते हैं । भक्त कभी गलत काम नहीं करता है । वह प्रभु की इच्छा का अंग होता है । जिन्हें प्रभु चलाते हैं , वे सही मार्ग पर ही चलते हैं । 

भक्त की वाणी बड़ी सरल किन्तु गहरी होती है । उसके अर्थ को हर कोई नहीं पकड़ सकता है । भरतलाल को सुनकर भी सबको ऐसा ही लगा । श्रीरामचरितमानसकार - बाबा श्रीतुलसीदासजी लिखते हैं –

*ज्यों मुखु मुकुर मुकुरु निज पानी ।*
*गहि न जाइ अस अदभुत बानी ॥*

-- जैसे दर्पण में मुख दिखाई देता है , लेकिन उसे हाथ से पकड़ा नहीं जा सकता , उसी तरह भरत की वाणी थी ।

श्रीभरतलालजी के शब्द सब की पकड़ में आ रहे थे । उनके "शब्दकोशीय" अर्थ भी लोग ढूँढ़ रहे थे ; लेकिन उसका भाव पकड़ में आना मुश्किल हो रहा था । सामने गुरुदेव  वसिष्ठ , विश्वामित्र और मिथिलाधिपति विदेहराज जनक जैसे दिग्गज बैठे थे । किसीकी बुद्धि काम नहीं कर रही थी । भक्ति बुद्धि का अतिक्रमण है । उसके पार जाना है । बुद्धि से भक्ति को पहचाना नहीं जा सकता । बुद्धि से भक्ति को थाहा नहीं जा सकता । इसीलिए बुद्धिवादी भक्त नहीं बन पाता । अतः सभी लोग चुप रहे । किसीने भरतलाल से कुछ कहा नहीं ।

भरतलाल की भक्ति ने जब सबको मौन कर दिया , तब सभी रामजी के पास गये । रामजी के सामने भरतलाल ने अपना भक्ति - भरा हृदय खोलकर रख दिया ।

*प्रभु पितु मातु सुहृद गुर स्वामी ।*
*पूज्य परम हित अंतरजामी ॥*

-- भरत कहते हैं कि हे प्रभु ! आप मेरे पिता , माता , मित्र , गुरु , परम हितैषी और अन्तर्यामी हैं ।

भक्त भगवान् को सर्वस्व मानता है । वह किसी अन्य से अपना कोई सम्बन्ध नहीं जोड़ता है । जिन सांसारिक सम्बन्धों के माध्यम से आदमी संसार को जीने योग्य बनाता है , उन्हें भक्त केवल प्रभु में ही पाता है । भक्त को प्रभु की कृपा पर बड़ा भरोसा होता है ।

*स्वामि गोसाँइहि सरिस गोसाईं ।*
*मोहि समान  मैं   साइँ दोहाईं ॥*

-- आप सरीखे स्वामी आप ही हैं और स्वामी के साथ द्रोह करने में मेरे समान मैं ही  हूँ ।

भक्त का हृदय इसी तरह सोचता है । अपने स्वामी से अपनी तुलना करते समय वह हमेशा उसके दूसरे छोर पर होता है । यदि प्रभु दयालु होता है तो वह दीन ; यदि प्रभु दानी होता है तो वह भिखारी । यदि प्रभु पापपुंजहारी होता है तो भक्त प्रसिद्ध पातकी । प्रभु की उच्चता के छोर पर और अपने को निम्नता के छोर पर दिखाना भक्त की रीति है । इसीमें सुख मिलता है । इसीमें उसे परमात्मा की प्रभुता समझ में आती है।

   भरतलाल रामजी को सबसे बड़ा स्वामी और अपने को सबसे बड़ा स्वामिद्रोही बता रहे हैं । लौकिक जीवन में यह तो वैर का रिश्ता है । जो द्रोह करेगा , स्वामी उसे क्यों चाहेगा ! किन्तु आध्यात्मिक जीवन में यही सहज रिश्ता है । यदि भक्त पापी नहीं होगा तो पापहारी भगवान् को पुकारेगा ही क्यों ! यदि भिखारी नहीं होगा तो दानी की शरण में जाने की आवश्यकता ही उसे क्यों होगी ! यदि वह स्वामिद्रोह का शिकार नहीं होगा तो वह क्षमाशील प्रभु को याद क्यों करेगा ! बिना इस भाव से याद किये भक्ति में तीव्रता नहीं आती । शुद्धात्मा भक्त विकल नहीं होता । पापी भक्त बड़ी भावप्रवणता से प्रभुजी को पुकारता है । उसके आँसुओं में  भावना का हाहाकार होता है । 

*सो मैं सब बिधि कीन्हि ढिठाई ।*
*प्रभु  मानी   सनेह  सेवकाई ॥*

   अपनी स्थिति का वर्णन करते हुए भरतजी कहते हैं कि मैंने बहुत ढिठाई की , पर प्रभु ने कभी उसे बुरे भाव में नहीं लिया । मुझे क्षमा करके आपने मेरे भाव को अपने भाव में लेकर उसका अर्थ ही बदल दिया । 

*....... क्रमशः.....*

डॉ गोविंदराम शर्मा फलवा
 प्रधानाचार्य आसावरा
 12 मई 2020
[5/15, 9:20 AM] Rahul: *.. भाग-20... प्रेम गली..अति सांकरी...*
    प्यार में शिकायत नहीं,,,,कोई वादा नहीं होता,,,,लोभ और स्वार्थ तो बिल्कुल भी नहीं....त्याग प्रेम का पूरक है...
वैवाहिक जीवन के विषय में एक किस्सा पढ़िए :

एक दंपत्ति नें जब अपनी शादी की 25
वीं वर्षगांठ मनायी तो एक पत्रकार
उनका साक्षात्कार लेने पहुंचा.
वो दंपत्ति अपने शांतिपुर्ण और सुखमय
वैवाहिक जीवन के लिये प्रसिद्ध थे. उनके बीच
कभी नाम मात्र का भी तकरार नहीं हुआ था.
लोग उनके इस सुखमय वैवाहिक जीवन का राज
जानने को उत्सुक थे.....
पति ने बताया :
हमारी शादी के फ़ौरन बाद हम हनीमुन मनाने
शिमला गये. वहाँ हम लोगो ने घुड़सवारी की.
मेरा घोड़ा बिल्कुल ठीक था लेकिन
मेरी पत्नी का घोड़ा थोड़ा नखरैल था. उसने
दौड़ते दौड़ते अचानक मेरी पत्नी को गिरा दिया.
मेरी पत्नी उठी और घोड़े के पीठ पर हाथ फ़ेर
कर कहा :
"यह पहली बार है", और फ़िर उसपर सवार
हो गयी. थोड़े दुर चलने के बाद घोड़े ने फ़िर उसे
गिरा दिया. पत्नी ने घोड़े से फ़िर कहा : "यह
दूसरी बार है", और फ़िर उस पर सवार हो गयी.
लेकिन थोड़ी दूर जा कर घोड़े ने फ़िर उसे
गिरा दिया. अब की बार पत्नी ने कुछ नहीं कहा.
चुपचाप अपना पर्स खोला, पिस्तौल
निकाली और घोड़े को गोली मार दी. मुझे यह देखकर
काफ़ी गुस्सा आया और मैं जोर से पत्नी पर
चिल्लाया : "ये तुमने क्या किया, पागल
हो गयी हो?" पत्नी ने मेरी तरफ़ देखा और
कहा :
"ये पहली बार है"
और बस उसके बाद से हमारी ज़िंदगी सुख और
शांति से चल रही है....
      खैर यह तो मजाक की बात हो सकती है, किंतु इतना अवश्य सत्य है कि वैवाहिक जीवन में प्रेम का संतुलन ऐसा होना चाहिए कि उसमें पति या पत्नी किसी का भी अहंकार बीच में आड़े ना आवे l ये ही पति-पत्नी जब एक-दूसरे से दूर कुछ समय के लिए अलग-अलग
हो जाए तो फिर इनकी हालत विरह के मारे कैसी हो जाती है,ये ही बता सकते हैं....

भरत माताओं सहित श्री राम से मिलने के लिए चित्रकूट जा रहे हैं। 
कौसल्या भरत के भाव को अच्छी तरह जानती थीं । उनकी प्रेम - प्रवणता में बाधा बनना माता को अच्छा नहीं लगा । भरत सबको राम के प्रेम के लिए चित्रकूट ले जा रहे थे । कौसल्या उस प्रेम में कोई रुकावट नहीं डालना चाहती थीं । उन्हें पता था कि जैसे - जैसे चित्रकूट निकट आयेगा,भरत की प्रेम - विकलता बढ़ती जायेगी । इसे रोकने से भरतलाल अस्वस्थ हो जायेंगे ।

"सीता - राम सीता - राम" कहते भरत प्रयाग पहुँचे । उनके पैरों में छाले पड़ गये, पर उन्हें इसकी कोई चिन्ता नहीं थी । ऐसा करने से उन्हें राम,लक्ष्मण एवं वैदेही के दुःख का अनुभव मिल रहा था ।

*भरत तीसरे पहर कहँ कीन्ह प्रबेसु प्रयाग।*
*कहत राम सिय राम सिय उमगि उमगि अनुराग।।*
*झलका झलकत पायन्ह कैसे, पंकज कोस ओस कन जैसे।*
*भरत पयादेहि आए आजू, भयउ दुखित सुनि सकल समाजू।।*

पैदल तो कभी चले नहीं, क्या दशा हो गई भरतजी की ••• नंगे चरण, गुलाबी-गुलाबी तलवों में कितने फफोले पडे़ है जोकि ऐसे दिखाई दे रहे हैं जैसे प्रातः काल कमल के पत्तो पर ओस की बूंदे जैसे मोती जैसी दिखती हैं।
    प्रेम में भार नहीं लगता, प्रेम भक्ति की परम अवस्था का नाम है, स्वामी रामतीर्थ जी ने अपने जीवन की एक घटना का उल्लेख किया है, प्रेम कैसा होता है और कितना निर्भार होता है? एक बार अल्मोड़ा के किसी गाँव में जा रहे थे, पहाड़ी रास्ते नीचे से ऊपर जा रहे थे।

    उनके आगे-आगे एक तेरह चौदह वर्ष की लड़की और उसकी पीठ पर कोई बालक था,वो भी पहाड़ के रास्ते ऊपर चली जा रही थी, ऊँचा चढ़ना... वो भी पीठ पर वजन लेकर, थोड़ा मुश्किल होता है, बालिका की सांस फूल रही थी, उन्होंने कहा बिटिया इस बालक को मेरी पीठ पर बैठा दे, मैं भी ऊपर ही जा रहा हूँ।

    जैसे ही उन्होंने कहा, लड़की स्वाभिमान से बोली बाबा ! आप क्या बोल रहे हो ? ये बालक नहीं है, मेरा छोटा भइया है, स्वामी रामतीर्थजी दंग रह गये, उन्होंने कहा तब मेरी समझ में आया, ये है भारतीय संस्कृति जहाँ छोटा भाई भार नहीं लगता है, बहन को तो कभी भी नहीं लगता, इसलिये बहन जीवन भर भाई के लिये रोती हैं, प्रेम में कष्ट विलीन हो जाया करता हैं।
   भरतजी संगम के तीर पर आ गये, एक ओर से श्री गंगाजी आ रही हैं और एक ओर से श्री यमुनाजी आ रही है, यमुनाजी श्याम वर्ण व गंगाजी गौर वर्ण की हैं, संगम के तीर पर भरतजी खड़े हैं, श्याम वर्ण देखा तो भगवान् श्याम सुन्दर राघवेन्द्र सरकार याद आने लगे, गौर वर्ण देखा तो माँ जानकीजी याद आने लगी।

*देखत स्यामल धवल हिलोरे, पुलकि सरीर भरत कर जोरे।*
*सकल कामप्रद तीरथराऊ, बेद बिदित जग प्रगट प्रभाऊ।।*
*माँगऊँ भीख त्यागी निज धरमू, आरत काह न करइ कुकरमू।।*

   संगम के तीर पर खड़े श्री भरतजी को भगवान और माँ जानकीजी की याद आने लगी, ये प्रेम की पराकाष्ठा है......

*........... क्रमशः...............*

डॉ गोविंदराम शर्मा फलवा
 प्रधानाचार्य आसावरा 
14 मई 2020
[5/15, 9:20 AM] Rahul: *.. भाग-9... प्रेम गली..अति सांकरी...*
     सामान्यतया प्रेम की अवधारणा को बहुत ही संकुचित कर के इसको स्त्री पुरुष तक सीमित कर दिया गया है l शॉर्टकट के इस जमाने में प्रत्येक मामले में शॉर्टकट होने लगा है l पहले डाल-पक फलों का स्वाद और होता था, अब रसायनों द्वारा फल पकने लगे हैं l इंजेक्शन के द्वारा पशुओं से दूध प्राप्त होने लगा है और तो और नकली दूध नकली मिठाई की खेप का तो कहना ही क्या ! पहले साल पर नियमित रूप से मूल पुस्तकों से पढ़ाई करके द्वितीय श्रेणी की उपाधि प्राप्त करना गौरव का विषय था अब वन वीक सीरीज सहायता से उपाधियां प्राप्त होने लगी है l अर्थात अन्य मामलों की तरह प्रेम में भी शॉर्टकट और मिलावट के मामले देखने को मिलते हैं l प्रेम का व्यापक दृष्टिकोण कई तरह के प्रेम की पुष्टि करता है; मसलन :
  ☆ ईश्वर के प्रति प्रेम
  1.राष्ट्रप्रेम 
  2.पर्यावरण और प्रकृति प्रेम
  3. नेतृत्व अथवा राजा के प्रति      
       प्रेम एवं राजनीतिक प्रेम 
   4. कला और सांस्कृतिक प्रेम 
   5.धार्मिक प्रेम
   6. संगीत के प्रति प्रेम
   7. ग्रंथों तथा पुस्तकों के प्रति प्रेम
   8. प्राणी मात्र के प्रति प्रेम
   9.मानव प्रेम 
   10.परिवार प्रेम
   11. पितृ प्रेम
   12. मातृप्रेम
   13. स्वयं के प्रति प्रेम
   14. अन्य
   ईश्वर के प्रति प्रेम,ईश्वर विषयक रति,भक्ति रस का स्थाई भाव है l भक्ति के बारे में आगे विस्तार से चर्चा करेंगे l भगवान् श्रीराम शबरीजी के समक्ष नवधा भक्ति का स्वरूप प्रकट करते हुए उनसे कहते हैं कि-

नवधा भकति कहउँ तोहि पाहीं।
सावधान सुनु धरु मन माहीं।।

प्रथम भगति संतन्ह कर संगा।
दूसरि रति मम कथा प्रसंगा।।

गुर पद पकंज सेवा तीसरि भगति अमान।
चौथि भगति मम गुन गन करइ कपट तजि गान।। 

मन्त्र जाप मम दृढ़ बिस्वासा।
पंचम भजन सो बेद प्रकासा।।

छठ दम सील बिरति बहु करमा।
निरत निरंतर सज्जन धरमा।।

सातवँ सम मोहि मय जग देखा।
मोतें संत अधिक करि लेखा।।

आठवँ जथालाभ संतोषा।
सपनेहुँ नहिं देखइ परदोषा।।

नवम सरल सब सन छलहीना।
मम भरोस हियँ हरष न दीना।।

भक्ति नौ रूपों में की जा सकती है। प्रथम भक्ति सत्संग ही है। विद्वानों, भक्तों एवं संतों के सानिध्य में प्रभु चिंतन का ज्ञान प्राप्त होता है। दूसरी प्रकार की भक्ति जो पाप-कर्म में प्रवृत व्यक्ति को भी पवित्र करने वाली है, वह है प्रभु लीलाओं के कथा प्रसंग से प्रेम करना। जब मनुष्य भगवान की लीलाओं के प्रति लगनपूर्वक आसक्त होगा तो उन को अपने में ढालने का प्रयत्‍‌न करेगा। तीसरी भक्ति है अभिमान रहित होकर गुरू के चरण कमलों की सेवा। चौथी भक्ति में वह माना जाएगा जो छल-कपट रहित होकर श्रद्धा प्रेम व लगन के साथ प्रभु नाम सुमिरन करता है। मन्त्र का जाप और दृढ़ विश्वास-यह पांचवी भक्ति है जो वेदों में प्रसिद्ध है।  छठवीं भक्ति है, जो शीलवान पुरुष अपने ज्ञान और कर्मेन्द्रियों पर नियंत्रण रखते हुए भगवद् सुमिरन करते हैं। सातवीं भक्ति में व्यक्ति सारे संसार को प्रभु रूप में देखते हैं। आठवीं भक्ति है जो कुछ मिल जाए उसी में सन्तोष करना और स्वप्न में भी पराये दोषों को ना देखना। नौवीं भक्ति है  छल कपट का मार्ग छोड़ दूर रहना  और किसी भी अवस्था में हर्ष और विषाद का न होना।    
    नवधा भक्ति के मुख्य पात्र एवम प्रकार :
श्रवण -परीक्षित ,
कीर्तन -शुकदेव ,
स्मरण -प्रह्लाद ,
पादसेवन-लक्ष्मी ,
अर्चन - पृथुराजा ,
वंदन -अक्रूर जी ,
दास्य -हनुमान ,
सख्य -अर्जुन,
आत्मनिवेदन-बलिराजा
    उपर्युक्त नौ प्रकार की भक्ति में कोई भी प्रेम करने वाला भक्त होता है और भगवान का प्रिय होता है।
     भक्ति हुए बिना निष्काम कर्मयोग कभी नहीं हो सकता।भगवद् भक्ति ही एक ऐसा साधन है जिसके द्वारा हम निष्काम कर्म करते हुए ज्ञान के प्रकाश में अपना आत्मदर्शन कर पाते हैं और प्रेम के स्वरूप को सार्थक करते हैं।

*....... क्रमशः.......*

डॉ गोविंदराम शर्मा फलवा
 प्रधानाचार्य आसावरा 
2 मई, 2020
[5/15, 9:20 AM] Rahul: *भाग 2... प्रेम गली..अति सांकरी..*
      प्रेम पीपल का बीज है,वह जहां संभावना नहीं होती,वहां पर भी पनप जाता है l श्रीमद्भगवद्गीता के 10वें अध्याय के 26 वें श्लोक में श्री कृष्ण कहते हैं कि वृक्षों में मैं पीपल हूं l इसका तात्पर्य यह हुआ कि प्रेम परमात्मा स्वरूप है l जिस प्रकार से पीपल का बीज पर्वत,पहाड़,छत,मकान,दीवार आदि किसी भी स्थान पर पत्थरों के बीच में उग कर बिना पानी के विपरीत परिस्थिति में वृद्धि करता है ठीक वैसे ही सच्चा प्रेम विपरीत परिस्थितियों में भी अभिवृद्धि करता है l
       भक्ति काल में जायसी आदि सूफी कवियों ने हिंदू प्रेम कहानियों को लेकर के इश्क हकीकी से इश्क मजीजी यानी ईश्वर तक पहुंचने के लिए अद्भुत प्रेम मार्ग का वर्णन किया है l जिसके अंतर्गत नायक विभिन्न बाधाओं को पार करता हुआ प्रेम के मार्ग पर चलते हुए नायिका तक पहुंचता है l आदिकाल हो या आधुनिक काल किसी न किसी कवि,लेखक के द्वारा प्रेम पर लेखनी अवश्य चलाई है l हिंदी साहित्य का रीतिकाल प्रेम को समर्पित रहा है; यद्यपि इस काल में इसका स्वरूप शारीरिक सौंदर्य अधिक रहा है किंतु प्रेम पच्चीसी सहित कई ग्रंथों की रचना प्रेम पर की गई है l धनानंद को प्रेम की पीर का कवि कहा गया है l घनानंद ने प्रेम को तलवार की धार पर चलने के समान बताया है l कबीर के अनुसार ढाई आखर प्रेम के पढ़े सो पंडित होय... कबीर ने यह नहीं कहा कि ढाई आखर प्रेम के पढ़े सो प्रेमी होय; इसका तात्पर्य यह हुआ कि जो प्रेम के मर्म को समझ ले वही ज्ञानी है l
     किसी को पा लेना ही प्रेम नहीं है.. चंद्रधर शर्मा गुलेरी मात्र एक कहानी 'उसने कहा था' की रचना करके हिंदी साहित्य में अमर हो गए l इस कहानी में सिर्फ एक बार ही लड़का, लड़की से मिलता है और प्रथम नजर में लड़के के मन में लड़की के प्रति प्रेम भाव उत्पन्न हो जाता है, लड़की की फिर किसी और से शादी हो जाती है l कालांतर में लड़की का पति और वह लड़का दोनों एक साथ सेना में काम करते हैं,तब उस लड़की के सुहाग को बचाने के लिए वह लड़का अपनी जान की बाजी लगा देता है,यह है निस्वार्थ प्रेम का उद्दात्त स्वरूप....l
      'प्रेम' शब्द सुनते ही सबसे पहले कृष्ण याद आते हैं।
    वह कृष्ण,जो एक बार गोकुल छोड़ते हैं तो कभी मुड़ कर भी नहीं देखते गोकुल की ओर... न यमुना, न बृंदाबन, न कदम्ब, न राधा,ऐसा नहीं है कि इन सब ने उन्हें दुबारा याद नहीं किया होगा किंतु श्रीकृष्ण अपने कर्म क्षेत्र में रत रहने के कारण दुबारा वापस उनके पास जा नहीं पाते हैं।
      मथुरा-गोकुल से अधिक दूर नहीं है हस्तिनापुर, कृष्ण सौ बार हस्तिनापुर गए पर गोकुल नहीं गए....क्यों?
       कहा जाता है कि यदि कृष्ण दुबारा एक बार भी गोकुल चले गए होते तो उनके प्रेम की वह ऊंचाई नहीं रह जाती,जो है।
प्रेम देह की विषयवस्तु नहीं, आत्मा का शृंगार है और प्रेम जिस क्षण देह का विषय हो जाय, उसी क्षण पराजित हो जाता है। कृष्ण का प्रेम आत्मा का प्रेम था, वे कभी राधिका के साथ नहीं रहे।
कृष्ण का स्मरण कर राधिका रोती रहीं,राधिका का स्मरण कर कृष्ण मुस्कुराते रहे,दोनों देह से दूर रहे,पर दोनों की आत्मा साथ रही। तभी कृष्ण का प्रेम कभी पराजित नहीं हुआ,वे जगत के एकमात्र प्रेमी हैं जिनका प्रेम अपराजित रहा।
     यह भी कितना अजीब है कि कृष्ण का स्मरण कर राधिका रोती रहीं, और राधिका का स्मरण कर कृष्ण मुस्कुराते रहे।
वस्तुतः दोनों अपनी मर्यादा ही निभा रहे थे,क्योकि पुरुष रो नहीं पाता, वह मर्मांतक पीड़ा भी मुस्कुरा कर सहता है। पुरुष होने का भाव पुरुष को अंदर ही अंदर मार देता है,फिर भी वह अपनी पीड़ा किसी को नहीं बता पाता।
कृष्ण तो पूर्ण पुरुष के दावे के साथ आये थे,तो कैसे रोते..?
    रोये तो थे मेरे राम ! पिता के लिए रोये, माता के लिए रोये, भाई के लिए रोये, पत्नी के लिए रोये, मित्र के लिए रोये, मातृभूमि तक के लिए रोये।
    लोगों को लगता है कि कृष्ण कोमल थे,और राम कठोर परंतु मुझे लगता है राम कोमल थे, कृष्ण कठोर। राम ने सबको क्षमा कर दिया,चौदह वर्ष की कठोर पीड़ा देने वाली मंथरा तक को कुछ नहीं कहा अपितु उसे मातृवत स्नेह दिया,कैकई के प्रति तनिक भी कठोर नहीं हुए,पर कृष्ण ने किसी को क्षमा नहीं किया।
     राम क्षमा करना सिखाते हैं, और कृष्ण दण्ड देना परंतु जीवन के लिए क्षमा और दण्ड यह दोनों कार्य प्रेम की भांति ही आवश्यक हैं।
    हाँ तो बात प्रेम की! या कहें तो बात कृष्ण की...
      कृष्ण ने उद्धव को गोकुल भेजा था गोपियों को ज्ञान सिखाने के लिए ?
     कृष्ण ने उद्धव को किसी और उदेश्य को पूरा करने के लिए भी भेजा था ताकि उद्धव जब वापस लौटें तो उनसे गोकुल की कथा सुन कर एक बार फिर वे गोकुल को जी सकें। जो आनंद अपने प्रिय के बारे में किसी और के मुख से अच्छा सुनने में मिलता है, उसे याद करते रहने में मिलता है, वह आनंद तो प्रिय से मिलने में भी नहीं मिलता... है न?
   कृष्ण ने विश्व को सिखाया कि प्रेम को जीया कैसे जाता है... कृष्ण अभी युगों तक प्रेम सिखाते रहेंगे।
     जब-जब राधा कृष्ण की कथा लिखी गयी है,तो केवल राधा की ओर से लिखा गया है।
राधा का वियोग, राधा का समर्पण, राधा के अश्रु... कृष्ण को कम लिखा गया। 
     कृष्ण भले गोकुल नहीं गए, पर जीवन भर उसी गोकुल के इर्द-गिर्द घूमते रहे। हस्तिनापुर, इंद्रप्रस्थ, कुरुक्षेत्र... नहीं तो कहाँ द्वारिका, कहाँ इंद्रप्रस्थ... 
     आठ प्रकार के विवाह में से ब्रह्म विवाह श्रेष्ठ माना गया है,वर और कन्या यज्ञ करने के उपरांत अग्नि को साक्षी मानकर वेदी के चारों और फेरे लेते हैं l सात वचन वर कन्या को देता है और सात वचन कन्या वर को देकर जीवन भर सम्यक रूप से इन वचनों का निर्वाह करते हुए जीवन जीते हैं l
      कबीर से किसी ने उनकी सुखी गृहस्थी का राज जानना चाहा तो कबीर ने अपनी पत्नी से कहा कि मुझे सूर्य की इस धूप में कम दिखाई दे रहा है इसलिए लालटेन जला कर लाओ और बिना किसी तर्क-वितर्क,किंतु-परंतु के कबीर की पत्नी सूर्य की रोशनी में लालटेन जलाकर के ले आई l
     आज के युग में कमरे की बैठक व्यवस्था को लेकर,खिड़की के पर्दों को लेकर,दीवारों के रंग को लेकर,कमरे की सजावट को लेकर,सब्जी के मेनू को लेकर या घर के प्रतिदिन के सामान्य रूटीन के कार्यों को लेकर के पति पत्नी में असहमति स्वरूप कई तरह के वाद-विवाद, तर्क-वितर्क होते रहते हैं l एक कहानी का अवलोकन करना समीचीन होगा :
  एक सेठ जी के घर में एक गरीब आदमी काम करता था जिसका नाम था लाल, जैसे ही लाल के फ़ोन की घंटी बजी,लाल थोड़ा बेचैन हो गया। तब सेठ जी ने पूछ लिया..."लाल तुम अपनी बीबी से इतना क्यों डरते हो?"
  "मै डरता नही सर् उसकी कद्र करता हूँ, उसका सम्मान करता हूँ।"उसने जबाव दिया।
सेठ जी हंसे और बोले-" ऐसा क्या है उसमें ? ना पढी लिखी ना और कोई विशेष योग्यता।"
   जबाव मिला-" कोई फरक नहीं पड़ता सर् कि वो कैसी है...पर मुझे हमारा रिश्ता बहुत प्यारा लगता है।"
    "जोरू का गुलाम।" सेठजी के मुँह से निकला।"और सारे रिश्ते कोई मायने नही रखते तेरे लिये ?" सेठ जी ने पूछा l
उसने बहुत इत्मिनान से जबाव दिया-
"सर् जी माँ बाप रिश्तेदार नहीं,वो तो भगवान होते हैं। उनसे रिश्ता नहीं निभाते उनकी पूजा करते हैं।
भाई बहन के रिश्ते जन्मजात होते हैं ,दोस्ती का रिश्ता भी मतलब का ही होता है। आपका मेरा रिश्ता भी जरूरत और पैसे का है पर,पत्नी बिना किसी करीबी रिश्ते के होते हुए भी हमेशा के लिये हमारी हो जाती है,अपने सारे रिश्ते को पीछे छोड़कर चली आती है,और हमारे हर सुख दुख की सहभागी बन जाती है 
आखिरी साँसो तक।"
सेठजी अचरज से उसकी बातें सुन रहे थे ।
वह आगे बोला-"सर् जी, पत्नी अकेला रिश्ता नही है,बल्कि वो संपूर्ण रिश्तों की भण्डार है।
   जब वो हमारी अथवा अन्य परिजनों की सेवा या देखभाल करती है, दुलार करती है तो एक माँ जैसी होती है। जब वो जमाने के उतार चढाव से आगाह करती है,और मैं अपनी सारी कमाई उसके हाथ पर रख देता हूँ,क्योंकि जानता हूँ वह हर हाल में मेरे घर का भला करेगी,तब पिता जैसी होती है।
   जब हमारा ख्याल रखती है,हमसे लाड़ करती है,हमारी गलती पर डाँटती है,हमारे लिये खरीदारी करती है तब बहन जैसी होती है। जब हमसे नयी-नयी फरमाईश करती है,नखरे करती है,रूठती है,अपनी बात मनवाने की जिद करती है,तब बेटी जैसी होती है।
   जब हमसे सलाह करती है,मशवरा देती है ,परिवार चलाने के लिये नसीहतें देती है,झगड़ा करती है तब एक दोस्त जैसी होती है।
   जब वह सारे घर का लेन-देन , खरीददारी ,घर चलाने की जिम्मेदारी उठाती है तो एक मालकिन जैसी होती है।
    और जब वही सारी दुनिया को, यहाँ तक कि अपने बच्चों को भी छोडकर हमारे पास मे आती है;तब वह पत्नी,प्रेमिका,प्रेयसी,अर्धांगिनी , हमारी प्राण और आत्मा होती है जो अपना सब कुछ सिर्फ हम पर न्योछावर करती है।"
मैं उसकी इज्जत करता हूँ तो क्या गलत करता हूँ सर्।"
उसकी बाते सुनकर सेठ जी के आखों में पानी आ गया 
इसे कहते है पति पत्नी का प्रेम।
ना की जोरू का गुलाम...।
     आजकल के लड़के-लड़कियां शारीरिक आकर्षण के कारण एक-दूसरे के प्रति आकर्षित हो जाते हैं लेकिन कितने बच्चे सच्चा प्रेम कर पाते हैं यह कहना बहुत मुश्किल है l महानगरों में स्थित उद्यानों में कई बच्चों को अंतरंग स्थिति में देखा जा सकता है, जो कि एक ओर तो अपने माता-पिता के विश्वास को चोट पहुंचा रहे होते हैं दूसरी ओर अपने भविष्य के साथ खिलवाड़ भी.. ऐसे बच्चों को सावचेत हो जाना चाहिए.. श्री अशोक मेहता की एक कहानी और पढ़िए जोकि हर युवक व युवती के लिए प्रेरणास्पद है ::
••●••••●•••●•••
''पापा वैभव बहुत अच्छा है ...मैं उससे ही शादी करूंगी..
वरना !! ' 
पापा ने बेटी के ये शब्द सुनकर एक घड़ी को तो सन्न रह गए .
फिर सामान्य होते हुए बोले -' ठीक है पर पहले मैं तुम्हारे साथ मिलकर उसकी परीक्षा लेना चाहता हूँ तभी होगा तुम्हारा विवाह वैभव से...
कहो मंज़ूर है ?
'बेटी चहकते हुए बोली -''हाँ मंज़ूर है मुझे .. 
वैभव से अच्छा जीवन साथी कोई हो ही नहीं सकता..
वो हर परीक्षा में सफल होगा ..आप नहीं जानते पापा वैभव को !' 
अगले दिन कॉलेज में नेहा जब वैभव से मिली तो उसका मुंह लटका हुआ था..
वैभव मुस्कुराते हुए बोला-'क्या बात है स्वीट हार्ट.. इतनी उदास क्यों हो ....
तुम मुस्कुरा दो वरना मैं अपनी जान दे दूंगा .''
नेहा झुंझलाते हुए बोली -'वैभव मजाक छोडो ....पापा ने हमारे विवाह के लिए इंकार कर दिया है ...
अब क्या होगा ? 
वैभव हवा में बात उड़ाता हुआ बोला होगा क्या ...हम घर से भाग जायेंगे और कोर्ट मैरिज कर वापस आ जायेंगें .'' 
नेहा उसे बीच में टोकते हुए बोली पर इस सबके लिए तो पैसों की जरूरत होगी..क्या तुम मैनेज कर लोगे ?'' ''
ओह बस यही दिक्कत है ... मैं तुम्हारे लिए जान दे सकता हूँ पर इस वक्त मेरे पास पैसे नहीं ...हो सकता है घर से भागने के बाद हमें कही होटल में छिपकर रहना पड़े..
तुम ऐसा करो तुम्हारे पास और तुम्हारे घर में जो कुछ भी चाँदी -सोना-नकदी तुम्हारे हाथ लगे तुम ले आना ...
वैसे मैं भी कोशिश करूंगा ...कल को तुम घर से कहकर आना कि  तुम कॉलेज जा रही हो और यहाँ से हम फर हो जायेंगे... सपनों को सच करने के लिए !'' 
नेहा भोली बनते हुए बोली  -''पर इससे तो मेरी व् मेरे परिवार कि बहुत बदनामी होगी '' 
वैभव लापरवाही के साथ बोला -''बदनामी वो तो होती रहती है ... तुम इसकी परवाह मत करो..'' 
वैभव इससे आगे कुछ कहता उससे पूर्व ही नेहा ने उसके गाल पर जोरदार तमाचा रसीद कर दिया..
नेहा भड़कते हुयी बोली -''हर बात पर जान देने को तैयार बदतमीज़ तुझे ये तक परवाह नहीं जिससे तू प्यार करता है उसकी और उसके परिवार की समाज में बदनामी हो ....
प्रेम का दावा करता है...बदतमीज़ ये जान ले कि मैं वो अंधी प्रेमिका नहीं जो पिता की इज्ज़त की धज्जियाँ उड़ा कर ऐय्याशी करती फिरूं .कौन से सपने सच हो जायेंगे ....जब मेरे भाग जाने पर मेरे पिता जहर खाकर प्राण दे देंगें !।मैं अपने पिता की इज्ज़त नीलाम कर तेरे साथ भाग जाऊँगी तो समाज में और ससुराल में मेरी बड़ी इज्ज़त होगी ...वे अपने सिर माथे पर बैठायेंगें...और सपनों की दुनिया इस समाज से कहीं इतर होगी...
हमें रहना तो इसी समाज में हैं ...घर से भागकर क्या आसमान में रहेंगें ? है कोई जवाब तेरे पास..
पीछे से ताली की आवाज सुनकर वैभव ने मुड़कर देखा तो पहचान न पाया.. नेहा दौड़कर उनके पासचली गयी और आंसू पोछते हुए बोली -'पापा आप ठीक कह रहे थे ये प्रेम नहीं केवल जाल है जिसमे फंसकर मुझ जैसी हजारों लड़कियां अपना जीवन बर्बाद कर डालती हैं !!''
      प्रेम शाश्वत है,संस्कृति जीवित है,लड़के ने लड़की को बरगलाया,आकर्षण के कारण लड़की उसकी बातों में आ गई लेकिन पिता के सच्चे प्रेम की जीत हुई.....
................क्रमशः..................

डॉ गोविंदराम शर्मा फलवा
 प्रधानाचार्य आसावरा
 24 अप्रैल 2020
[5/15, 9:20 AM] Rahul: *.. भाग 1...प्रेम गली अति सांकरी...*
    प्रेम गली अति सांकरी जामें दो न समाय.. लेकिन यह कहते भी सुना गया कि तू मुझ में समा जाsss... मैं तुझ में समा जाऊं... दोनों ही स्थितियों के गहरे मायने हैं l दोनों ही स्थितियों में अहं का विसर्जन करना होता है,स्वयं को भूलना होता है l पहली स्थिति ईश्वर से एकाकार करवाती है दूसरी स्थिति एक-दूसरे का..l
      प्रेम वह मनोवृत्ति है जो किसी को निहायत ही अपना समझ कर सदैव उसके सामिप्य के लिए प्रेरित करती हैं l यह पारस्परिक स्नेह है,जो बहुधा रूप,गुण,सानिध्य,प्रीति या माया के वशीभूत होकर फलीभूत होता है l
         सामान्यतया प्रेम अनिर्वचनीय होता है,इसका कोई पैरामीटर नहीं होता; प्रेम अपने आप में ब्रह्म स्वरूप है l ईश्वर की एक प्रमुख विशेषता प्रेम भी है l करुणा कविता की जनक है,किंतु प्रेम पर अनेकानेक कविताओं की रचना की गई l प्रेम शाश्वत एवं सत्य स्वरूप है l लोभ, मोह, क्रोध, स्वार्थ,अहंकार,लापरवाही, वासना इत्यादि प्रेम के बाधक तत्त्व होकर के इसको कमजोर करते हैं; जबकि प्रीति,अनुराग, स्नेह, ममता, समर्पण, निस्वार्थभाव,परवाह, करुणा, शृंगार,दया,क्षमा आदि इसके सहायक हो करके इसको पुष्ट करते हैं l सामिप्य एवं समय से यह अधिक परिपक्व होता है l
             श्रीरामजी द्वारा  शिव-धनुष भंग करने के पश्चात महाराजा जनक के निमंत्रण पर  राजा दशरथ जनकपुरी बारात लेकर के आए l प्रभु श्रीराम राजा दशरथ की सेवा में उपस्थित हुए, उस समय श्रीराम की अनुपस्थिति में  श्रीभरत, श्रीलक्ष्मण, श्रीशत्रुघ्न तीनों भाई स्वयंवर पर चर्चा कर रहे थे l श्रीलक्ष्मणजी पुष्प-वाटिका प्रसंग की जानकारी अपने दोनों भाइयों को दे रहे थे, तब ही श्रीराम का आगमन वहां हुआ l रिपुसूदन ने श्रीराम से बड़ी ही सुंदर बात पूछी कि "हे ! भ्राताश्री एक बात बताइए कि गुरुकुल में हमें प्रेम-शास्त्र नहीं पढ़ाया गया फिर आपने प्रेम कहां से सीखा और कैसे भाभी सीता की ओर आकर्षित हुए ?" 
     प्रभु श्रीराम ने बड़ा ही सुंदर उत्तर दिया कि "हे भ्राता ! मैंने प्रेम की शिक्षा प्रकृति से पाई है; जिस प्रकार से माता अपने पुत्र से,भाई अपने भाई से और सागर की लहरें चंद्रमा से प्रेम करती हैं l विधाता के द्वारा दो अनजानों का प्रेम पहले से ही निर्धारित कर दिया गया होता है और समय-काल-परिस्थिति आने पर उनका मिलन सुनिश्चित हो जाता है l"
    प्रेम जीवन हैं,सौंदर्य हैं,चाहत हैं,पीड़ा हैं, उमंग हैं,आवेग हैं, ज्वाला हैं,पूजा हैं !
   प्रेम यह शब्द ज़ितनी बार बोला या लिखा जाए उतनी ही बार यह अलग एहसास देता हैं ! दुनिया में कोई ऐसा मजहब,धर्म-पंथ नहीं
हैं, जो प्रेम का संदेश नही देता हैं !
प्रेम *अपने से भिन्न* के प्रति *अभिन्न होने का भाव* हैं जो किसी से भी हो सकता हैं ! हमारी परम्परा में बच्चों मे स्नेह, बड़े बुजुर्गों गुरूजनों के प्रति श्रृद्धा, समवयस्कों के प्रति सखा भाव, स्त्री-पुरूष के प्रति शृगांरिक भाव, माता का पुत्र के प्रति वात्सल्य, गुरु का शिष्य के प्रति अथवा बड़ों का छोटों के प्रति स्नेह आदि प्यार की कुछ कोटियां हैं, लेकिन प्यार इन कोटियों में समा नहीं पाता !
प्रेम में कोई तर्क की गुजांइश नहीं रहती और इसे किसी विधि-विधान के फार्मूले पर नहीं किया जा सकता हैं !
"यह करने की कोई चीज नहीं है यह तो हो जाता है... ज़िसे हो गया,उसे हो गया और ज़िसे नहीं हुआ उसके लिए कोई उपाय नहीं हैं !"
वैज्ञानिक भी प्रेम को सिध्द नहीं कर पाये कि प्रेम क्या हैं ? पर वे मानते हैं कि प्रेम एक ऐसी स्थिति है, ज़िसे प्रयोग य़ा तर्क से ज्यादा अनुभव किया जा सकता हैं ! 
अनेक साहित्यकारों, मनीषियों, कवियों-सूरदास, कबीर,अमीरखुसरो आदि ने अपनी रचनाओं में प्रेम को ऊँचा स्थान दिया हैं ! 
सूरदास ने अपने पदों में माता यशोदा का वात्सल्य भाव तथा गोपियों और कृष्ण के प्रेम का विस्तृत वर्णन किया हैं ! वह कहते हैं कि जब उद्धव श्रीकृष्ण का संदेश लेकर गोपियों के पास जाते हैं तो गोपियां एक पंक्ती में गाकर सुनाती है कि - "लरिकाई का प्रेम कहौ, अलि कैसे छूटे" अथार्त यह बचपन का प्रेम हैं, यह कैसे दूर हो सकता है ? आप अपनी ग्यान की बात को न सुनाये, लौट जाये !
   सत्य है प्रेम में स्वामित्व नहीं सेवा-भाव प्रबल होता है ! वहाँ कोई स्वार्थ नहीं होता; प्रेम देना जानता है, लेना नहीं ! आचार्य रामचन्द्र शुक्ल लिखते है - "दुख की परिस्थिति में सुख की इस कल्पना के भीतर हम जीवन-य़ात्रा के शांत पथिक के लिये प्रेम की शीतल सुखद छाया देखते हैं ! यह प्रेम मार्ग निराला है, जीवन-य़ात्रा में अलग होने वाला नहीं है ! प्रेम कर्मक्षेत्र को अलग नहीं करता बल्कि उसमे बिखेरे हुये कांटो पर फूल बिछाता हैं !
अतीत काल से वर्तमान काल तक प्रेम की परिभाषा नहीं बदली, पर लोगों की सोच के नजरिये बदलते गए ! पर लोग यह नहीं जानते - "संसार का सार और आधार प्रेम हैं l"
सुरपति दास इस्कॉन लखनऊ के अनुसार प्यार को हमदर्दी, किसी मुल्क य़ा जाति-धर्म की ज़रूरत नहीं पड़ती, मनुष्य में बहने वाली यह भावधारा ही उसे श्रेष्ठ बनाती हैं !
........... क्रमशः .........

डॉ गोविंदराम शर्मा फलवा
 प्रधानाचार्य आसावरा 
23 अप्रैल 2020
[5/15, 9:20 AM] Rahul: *.. भाग-6... प्रेम गली..अति सांकरी...*
      संतान के जन्म पर स्त्री मां का सुख एवं पुरुष पिता होने के आनंद की अनुभूति करता है; परिवार में सर्वत्र आनंद,उल्लास,खुशी का माहौल होता है l माता-पिता दोनों मिलकर के बड़े जतन से अपने संतान की परवरिश करते हैं,स्वयं अपनी जीवन यात्रा में चाहे कितनी ही परेशानियां,कितने दुखों का सामना कर लें,लेकिन अपनी संतान को कभी दुख की अनुभूति नहीं होने देते हैं; क्योंकि वो अपनी संतान से सच्चा प्रेम करते हैं l 
     भौतिकवादी युग के वशीभूत होकर के पुत्र यह मान ले कि बुढ़ापे में सेवा करवाने के स्वार्थ को लेकर के माता-पिता ने उनका पालन पोषण किया,तो पुत्र का ऐसा सोचना गलत है l जिस प्रकार से यह सृष्टि,यह पृथ्वी,यह वायु,यह सूर्य, निस्वार्थ भाव से दाता होकर सभी को देने का भाव रखते हैं; ठीक इसी प्रकार से माता-पिता भी निस्वार्थ भाव से बिना किसी अपेक्षा के अपनी संतान को सदा देने का भाव ही रखते हैं l कितनी विडंबना है कि इसके बावजूद पुत्र अपने माता-पिता से यह तक कह देता है कि आपने हमारे लिए किया ही क्या है ? 
     एक पिता के लिए उसकी पुत्री उसके जीवन में सबसे अधिक महत्वपूर्ण होती है;वही पुत्री यदि अपनी पिता की आंखों में धूल झोंक कर के अपनी पढ़ाई से इतर किसी झूठे आकर्षण एवं मोह में पड़कर के बिना माता-पिता की अनुमति के घर छोड़ कर के किसी के साथ भाग जाए तो माता-पिता पर क्या बीत सकती है ? सिर्फ ईश्वर ही जानता है कि माता-पिता के लिए उनके जीवन की इससे बड़ी विडंबना और कोई नहीं हो सकती l मैं बेटियों को सावधान करने के उद्देश्य से यह बात कह रहा हूं l लव-जेहाद नामक कलंक के बारे में भी सुना और अखबारों में पढ़ा l समाज भले ही लिव-इन-रिलेशन की अनुमति दे देता हो,लेकिन भारतीय संस्कृति लव-जेहाद के कलंक को कभी स्वीकार नहीं कर सकती l
     लड़के-लड़कियां भाग कर शादी कर लेते हैं और ऐसा कर्म करना बहादुरी समझते है l ऐसा नहीं है कि मैं किसी के स्व, उसके व्यक्तिगत जीवन, उसके अस्तित्व अथवा उसकी स्वतंत्रता के ख़िलाफ़ हूं; सभी को अपने-अपने हिसाब से अपना-अपना जीवन जीने का पूरा अधिकार है लेकिन अपना जीवन सिर्फ अपना जीवन नहीं होता; हमारे जीवन के साथ कई जीवन जुड़े हुए होते हैं l यदि उन्होंने सच्चा प्रेम किया है तो अपने परिवार में अपने परिजनों के साथ अपने प्रेम संबंध की बात सच-सच बतानी चाहिए तथा किसी भी परिस्थिति का सामना करना चाहिए l यह बात सच है कि प्यार किया नहीं जाता हो जाता है,लेकिन यह भी सच है कि यह जीवन माता-पिता का दिया हुआ ही है;इसलिए माता-पिता की अवहेलना करके कोई कभी सुखी नहीं रह सकता है l
माता-पिता अपनी पूरी ज़िंदगी अपनी संतान के लिए इसलिए  नहीं जीते कि वो बड़े होकर उन्हें धोखा देकर भाग जाए ? ये प्यार नहीं, यह एक हवस और गंदी मानसिकता है, जो दो परिवार की खुशी को खाक में मिला देती है l हवस को प्रेम का नाम ऐसे ही गिरे हुए देते हैं,जो माता-पिता के सच्चे प्रेम का भी भरोसा और इज्जत नहीं करते हैं l
    आजकल अल्पवय,अपरिपक्व लड़के-लड़कियां पैदा बाद में होते हैं और प्यार पहले करने लग जाते हैं। माँ बाप से ज्यादा प्यार कोई किसी को नहीं दे सकता है । माँ-बाप अपने लिए बाद में, पहले अपनी संतान की ख़्वाहिशों को पूरा करते हैं और बदले में मांगते ही क्या हैं उनसे ?
   मां-बाप का सर ऊँचा करने के बजाय उनको सभी के सामने शर्मसार करके भागकर कहां जाएंगे और कहां तक भागेंगे ? कब तक भागेंगे ?
संतान के लिए माँ बाप से जरूरी कल के आये लोग नहीं हो सकते हैं। प्यार किया है तो हिम्मत रखनी चाहिए, भागना कायरों का काम है।
     लव जेहाद में फंसी लड़कियों का अंतिम पड़ाव दुबई अथवा महानगरों के डांस बार या फिर देह शोषण के नारकीय जीवन...
   दुबई में लड़कियों के हालात पर खोजी पत्रकार की एक रिपोर्ट...

*मैंने लड़कियों से बात करने के प्रयास जारी रखे। कई बार मंदिर में उनसे भेट भी हुई पर आखरी 5 महीने बाद उसी पठान ड्रावर ने नीग्रो को कुछ पैसे देकर बात करने पर राजी किया।* 

*और हमारी भेट एक भारतीय रेस्टोरेंट सागर रत्ना में हुई।*

*सभी लड़कियां भारत के अलग अलग भागों से, अच्छे परिवारों से हैं और सभी ने अपने परिवार से विद्रोह करके अपने प्रेमी से विवाह किया था और कुछ महीने प्रेमी के साथ बिताने के बाद दुबई घूमने आये थे।* 

*और लड़के ने उन्हें पैसे के लालच के कारण नाचघर में बेच दिया था।*

*कुछ ने बताया कि उनका पति दुबई में ही जॉब करता है और साथ रहने के लिए आई थी पर यहाँ बेच दिया गया।*

*3 लड़कियां तो एक ही लड़के से अलग अलग स्थानों पर विवाह कर के यहाँ बेची गईं थीं।*

*इनके अलावा भी बहुत सी लड़कियां हैं जो अलग अलग होटलों, नाच घरों में नरक भोग रही हैं।* 

*अधिकतर लड़कियों ने बताया कि उन्होंने बड़ा अपराध किया और उसकी सजा के रूप में नरक भोग रही हैं ।* 

*मैंने उन्हें वापिस भारत अपने घर लौटने के लिए कहा तो सब ने मना कर दिया । अब उनके लिए भारत में कुछ नहीं है, "हम न तो परिवार और समाज को अपना मुँह दिखाने लायक रही और न हमारे पास कोई दूसरा जरिया है जिससे अपने रहने खाने की व्यवस्था हो सके, अब तो  इसी नरक में ही रहना है और फिर भगवान् जाने क्या होगा जब आयु ढल जाएगी...??"*

*सभी लड़कियों ने अपनी पढ़ाई पूरी नहीं की थी । कॉलेज की पढ़ाई के दौरान ही प्यार हुआ और विवाह किया था।*

*वैसे तो पूरे भारत से लड़कियां इस जिहादी जाल में फंसती आई हैं पर सबसे अधिक उत्तराखंड से आई हुई थी।* 

*एक लड़की तो दिल्ली के पंजाबी सरकारी अफसर की बेटी थी।*

*वैसे नाम के लिए तो ये सभी लड़कियां बार में नाचने का कार्य करती थीं पर बार में आने वाले ग्राहकों को खुश रखने के लिए देह व्यापार करने पर भी बाध्य थीं ।*

*मेरे बहुत अधिक आग्रह करने पर दिल्ली की दो लड़कियाँ अपने परिवार का पता और फोन नंबर देने पर राजी हुईं।* 

*मैंने उन्हें समझाया था, कि मैं अपनी और से प्रयास करूँगा कि आपका परिवार आपको स्वीकार करे और आप इस नरक से निकल कर वापिस भारत अपने परिवारों के साथ रहें।* 

*मैं दिल्ली में उनके परिवारों से मिलने के लिए गया और उनकी बेटी की स्थिति से अवगत कराया पर दोनों के परिवार नहीं चाहते कि लड़कियां वापिस आएं, वे अब उनके लिए मर गई हैं।* 

*हाँ शायद मर गई हैं। आत्मा तो मर ही गई है.. पर देह अर्द्धजीवित है।*
   दुविधा में दोनों गए माया मिली न राम.... ऐसी दुविधा नहीं रखनी चाहिए l जीवन का पक्ष उज्ज्वल हो और स्पष्ट विचारधारा हो l
      आदिकाल में मानव स्वच्छंद विचरण करता था l सभ्यता और संस्कृति का विकास होने पर धीरे-धीरे समूह,समाज और परिवार में रहने लगा l समाज और परिवार में नियमों से आबद्ध हुआ l सर्वे भवंतु सुखिनः की शुद्ध भावना के लिए एक व्यवस्था का निर्धारण किया गया l रिश्ते नातों का निर्धारण हुआ l
 सभी व्यवस्था के तहत जीवन यापन करने लगे l प्रेम,आदर,सम्मान,श्रद्धा इत्यादि भावों का विकास हुआ l हमारे देश पर विदेशियों के आक्रमण के फलस्वरूप हमारी संस्कृति पर प्रहार किए गए और धीरे-धीरे यहां के लोग पश्चिमी संस्कृति का अंधानुकरण करने लग गए l
     आधुनिकता, उत्तर-आधुनिकता एवं उत्तर-उत्तर-आधुनिकता के फलस्वरूप भौतिकवादीता हावी होती गई और बाजारवाद के दौर में मनुष्य वस्तु बन कर के रह गया, लोग स्वार्थी होते गए और प्रेम बिचारा मन मसोसकर किसी कोने में सिमट गया ....लेकिन प्रेम शाश्वत है..सत्य है..परमात्मा स्वरूप है,कुछ समय के लिए थोड़ा कमजोर जरूर हो सकता है... कभी मर नहीं सकता...

*.... क्रमशः....*

डॉ गोविंदराम शर्मा फलवा
 प्रधानाचार्य आसावरा
 28 अप्रैल 2020
[5/15, 9:20 AM] Rahul: *.. भाग-13... प्रेम गली..अति सांकरी...*
        सामान्यतया पुरुष को कठोर हृदय एवं स्त्री को कोमल ह्रदय माना जाता है l स्वभाव के मामले में भी ऐसी ही मान्यता है l काव्य में जहां श्रृंगार है, वहां माधुर्य गुण अनिवार्य होता है, ओज को पुरुष की प्रकृति मान करके वीरता अथवा रौद्र का परिचायक माना गया है l माधुर्य एवं ओज भिन्न-भिन्न प्रकृति लिए हुए होते हैं किंतु पुरुष में दोनों का समावेश मिलता है l प्रेम के लिए माधुर्य आवश्यक होता है, वहीं साहस प्रदर्शन अथवा दम-खम दिखाने या वीरतापूर्ण कार्य करने के लिए ओज आवश्यक होता है l स्त्री के माधुर्य पक्ष को  सदैव अधिक महत्त्व मिला है; पुरुष के माधुर्य के पक्ष को कम एवं ओज-तेज पक्ष को अधिक चित्रित किया गया है, जबकि पुरुष में माधुर्य भी उतना ही होता है, जितना कि ओज l आवश्यकता है पुरुष के अंतरतम में स्थित माधुर्य को समझने की l
     एक भजन "...कान्हा रे तू राधा बन जा ; तू भूल पुरुष का मान रे ...तब होगा तुझको राधा की पीड़ा का अनुमान रे... बहुत पहले सुनने को मिला था l लेखक की कल्पना पर कोई प्रश्नचिन्ह नहीं है, किंतु विचार अवश्य आता है कि क्या कभी श्रीकृष्ण की पीड़ा का अनुमान किसी ने समझने का प्रयास किया...?? यदि किया तब तो श्रीकृष्ण को सही समझा गया; यदि नहीं किया गया तब फिर से श्रीकृष्ण को समझने की आवश्यकता है क्योंकि श्रीकृष्ण कभी भी अपनी पीड़ा को व्यक्त नहीं करेंगे... वह तो स्वयं प्यार के सागर है, माधुर्य की खान है, कोटि-कोटि अंतरिक्ष से परे उनका प्रेम विस्तारित है l श्री राम दया के अनंत सागर हैं श्री कृष्णा प्रेम के अनंत सागर हैं... श्री कृष्ण का प्रेम समझ में आ गया तो निश्चित ही पुरुष का प्रेम भी समझ में आ जाएगा... श्रीकृष्ण की पीड़ा यदि आत्मसात हुई तू पुरुष की पीड़ा भी अनुभूत हो सकेगी....

केवल पा लेना 
ही 
प्रेम नही..
किसी को बिना पाए भी,
उसी का होकर रहना
प्रेम है....

जो समझाया ना जा सके,
वो प्रेम है...
जो महसूस हो बस,
रुह की गहराईयों तक 
वो प्रेम है..

शब्दों से परे,
बंद आँखों से जो 
महसूस हो,
वो सबसे सुन्दर अहसास
प्रेम है..

हर आहट मे 
जिसके आने का,
विश्वास शामिल हो,
वो हर पल का इंतजार
प्रेम है..

       रिश्तों के वृक्ष को हरा-भरा बनाए रखने के लिए वर्तमान समय विशेष आवश्यकता है प्रेम के पानी से सींचने की, साथ-साथ एक दूसरे के संस्कार-स्वभाव को समझ कर स्वीकार करने की । कोई भी एक जैसे नहीं है और यही हम संसार की खूबसूरती हैं । भगवान ने हम सबको बनाया है और ईश्वर कभी बनाने में गलती तो नहीं कर सकते, लॉक-डाउन खत्म होगा लेकिन रिश्ते खत्म न हो, आपसी प्रेम बना रहे इस बात का सभी विशेष ध्यान रखें.....
    सूरदास जी ने उद्धव को निरुत्तर करते हुए गोपियों के विरह की पीड़ा को बखूबी व्यक्त किया है, मीरा का विरह भी उनके पदों में सजीव वर्णित हुआ है l राधा के प्रेम-विरह का भी विवरण मिलता है l जायसी ने नागमती के विरह का अद्भुत चित्रण किया है l बिहारी के दोहों में नायिका के विरह का वर्णन गागर में सागर के सामान है l महादेवी वर्मा की कविताओं में स्त्री मन की पीड़ा घनीभूत हुई है किंतु पुरुष मन की पीड़ा को व्यक्त करने के अवसर कम दिखाई दिए हैं l हर कोई स्त्री के बिरहा का बखूबी वर्णन कर देता है किंतु पुरुष पीड़ा को शब्दों में व्यक्त करना बहुत कठिन है :
 
आज बस यूं ही
कुछ मन की बात
जानते सभी हैं
लेकिन क्या कर सकते हैं
सदियों से 
पुरुष को स्वार्थी बताया
मां का प्यार
 सहज चित्रित होता है
सरल अनुभूत होता है
पिता 
क्या सिर्फ पिता होता है
पिता का प्यार
कब भला प्रदर्शित होता है
मीरा का विरह
 जग जग चर्चित होता है
कान्हा के रुदन को 
कब कौन सुनता है
 नारी का दर्द सब बांचते हैं
पुरुष की पीड़ा
 भला कौन बांटते हैं
यह सच है 
नारी अपने लिए नहीं जीती
 लेकिन भला 
पुरुष अपने लिए
 कब जी पाता है
 ?????

*.... क्रमशः.....*

डॉ गोविंदराम शर्मा फलवा
 प्रधानाचार्य आसावरा 
5 मई 2020
[5/15, 9:20 AM] Rahul: *.. भाग-16... प्रेम गली..अति सांकरी...*

     भरत को श्रीरामजी का प्रेम दौड़ा रहा था । यह शक्ति निषादराज की नहीं थी । भरतलालजी ने जब यह जान लिया कि निषादराज श्रीरामजी का मित्र है तो वह समझ गये , इसे रामजी ने छुआ होगा , गले लगाया होगा , इसके साथ बैठकर प्रभुजी ने बातें की होगी । रामजी को पाकर यह राममय हो गया होगा । राम की झलक इसके अन्दर जरूर होगी । राम की इसी झलक के लिए भरतलालजी दौड़ रहे थे । यह बड़ी स्वाभाविक बात है । दूर बसे प्रिय का जब पत्र आ जाता है तो मन कितना उछल उठता है। उसे बाँधने की कितनी व्याकुलता होती है । एक - एक अक्षर में प्रिय की छवि दिखाई देने लगती है । भरतलाल के लिए निषादराज रामजी का प्रेम - पत्र था । भरतलाल उसे देखने - बाँचने के लिए आतुर हो उठे । उसके पोर - पोर में उन्हें श्रीरामजी दिखाई दे रहे थे । उसके समूचे व्यक्तित्व में भरतलाल रामजी को रूपायित कर रहे थे ।

 निषाद राज के साथ भरतलालजी गंगातट पहुँचे । उन्होंने "रामघाट" देखा , जहाँ श्रीरामजी ने स्नान , ध्यान किया था ।

*रामघाट कहँ कीन्ह प्रनामू ।*
*भा मनु मगनु मिले जनु रामू ॥*

-- उन्होंने रामघाट को प्रणाम किया । भरत को ऐसा अनुभव हुआ जैसे उन्हें  स्वयं राम ही मिल गये हों ।

प्रेम जब प्रबल और प्रखर होता है , तब प्रेमी की छुई हर चीज मन में प्रेमभाव जाग्रत करती है । उसकी छवि उतारती है । पूरी यात्रा में ऐसे अवसर भरतलाल के लिए अनेक आते हैं । हर बार भरत प्रेम में डूब जाते हैं । 

भरतलाल के साथ वनवासियों के हृदय को भी हम जरा टटोलते चलें । रामजी ने गंगा में जहाँ स्नान किया था , उसे वनवासियों ने तीर्थ मान लिया था । रामजी से जोड़कर उसे "रामघाट" कहने लगे थे । देखने में यह बात बड़ी छोटी लगती है , लेकिन इसमें अपार श्रद्धा भरी हुई है । वनवासी चाहते थे कि राम की याद उनके जीवन में बनी रहे । उनकी आनेवाली पीढ़ियाँ इतिहास के इस ज्वलन्त कालखण्ड को इस यादगार के जरिये अपने भीतर जीवन्त कर सकें । मनुष्य कैसा भी हो , किन्तु जब उसके भीतर निर्मल श्रद्धा उपजती है तो उसका विचार कालजयी हो जाता है। निर्मल हृदय अँधेरी कोठरी का टिमटिमाता मरियल दीप नहीं होता , वह सूर्य की तरह भास्वर प्रकाश फैलाता है । वे रामघाट नहीं बनाते तो भरतलाल गंगातट पर राम को जीवन्त कैसे कर पाते ? यदि वे रामघाट नहीं बनाते तो आनेवाली पीढ़ियाँ एक पावन तीर्थ से वंचित रह जाती  । 

गंगाजी में स्नान - पूजन करके भरतलाल एक वरदान माँगते हैं । श्रीरामचरितमानसकार -  बाबा श्रीतुलसीदासजी लिखते हैं –

*जोरि पानि बर मागउँ एहू ।*
*सीय राम पद सहज सनेहू ॥* 

-- मैं हाथ जोड़कर यही वरदान माँगता हूँ कि सीताराम के चरणों में मेरा स्वाभाविक प्रेम हो ।

सीताराम के चरणों में मेरा स्वाभाविक प्रेम हों - यह वरदान माँगना भरतलाल के लिए बड़ी बात नहीं है । श्रीरामजी के प्रति उनका प्रेम जग - जाहिर है । लेकिन इसमें एक शब्द ऐसा है , जो पूरे प्रसंग को मार्मिक बना देता है । यह शब्द है - *"सहज"* । भरत राम के चरणों में सहज स्नेह चाहते हैं । बात बड़ी ऊँची है । आज भरत के ऊपर कठिनाइयों का पहाड़ टूटा हुआ है । आज लोग उनपर कलंग लगा रहे हैं । आज उन्हें सभी लोग कैकेयी के मत का कह रहे हैं । आज यदि भरत राम को प्रेम कर रहे हैं तो यह तो स्वार्थ है । आज भरतलाल का चिल्ला - चिल्लाकर राम के प्रति प्रेम - प्रदर्शन कलंक धोने की रणनीति भी हो सकता है । लोग इसे राजनीतिक चाल भी कह सकते हैं। भरतलाल ऐसे तात्कालिक प्रेम को नहीं चाहते । वह सदा - सदा के लिए रामजी के होकर रहना चाहते हैं । इसीलिए माँ गंगा से स्वाभाविक  प्रेम राम और सीता के प्रति माँगते हैं । ऐसा प्रेम , जो कभी टूटे नहीं , जो कभी भूले नहीं । गाना पक्षी का स्वभाव है । बहना नदी की सहजता है । पक्षी गाये नहीं तो मर जायेगा । नदी बहे नहीं तो सूख जायेगी। भरतलाल ऐसा ही प्रेम चाहते हैं , जो जीवन - भर उनसे जुड़ा रहे । आदमी आदतें छोड़ देता है , पर मरते दम तक अपना स्वभाव नहीं छोड़ता है । भरतलाल प्रेम को अपना स्वभाव बनाना चाहते हैं , ताकि मरने पर ही वह छूटे ।

 निषाद से भरतलाल उन स्थानों को दिखाने के लिए कहते हैं जहाँ - जहाँ राम, लक्ष्मण और सीता सोये थे । वह अकेले जाते है । उनका शरीर प्रेम से शिथिल है । निषाद उन्हें उस स्थान पर ले जाता है । भरत ने उस अशोक वृक्ष को प्रणाम किया , जहाँ रामजी शयन किये थे ।

*कुस साँथरी निहारि सुहाई ।*
*कीन्ह प्रनामु पदच्छिन जाई* ॥
*चरन रेख रज आँखिन्ह लाई ।*
*बनइ न कहत प्रीति अधिकाई ॥*

-- कुशों की सुन्दर चटाई को देखकर उसकी प्रदक्षिणा करके प्रणाम किया । राम के चरणचिह्नों की धूलि आँखों में लगायी । उनके प्रेम की अधिकता कहते नहीं बनती है ।

*जहँ सिंसुपा पुनीत तरू रघुबर किय बिश्राम।*
*अति सनेहँ सादर भरत कीन्हेउ दंड प्रनाम।।*

भरतजी ने दूर से सादर दण्डवत प्रणाम किया है, भरतजी कुश की उस शैया को बार-बार निहार रहे हैं, बार-बार प्रदक्षिणा करते हैं, मंदिर में दर्शन के बाद मंदिर की प्ररिक्रमा जरूरी है, बिना प्रदक्षिणा के दर्शन अधूरा होता है, जहाँ प्रदक्षिणा या परिक्रमा की सुविधा नहीं है वहाँ एक स्थान पर खड़े होकर परिक्रमा करें।

परिक्रमा करने के बाद मंदिर के द्वार पर दो मिनट बैठें, बैठने का अर्थ है जैसे पत्नी पति के भरोसे, जैसा चाहो वैसे रखना, भक्त भी भगवान की परिक्रमा करता है, तुम ही प्राणपति हो, अब तो तुम्हारे ही भरोसे बैठे हैं "जाहि विधि राखे राम ताहि विधि रहिये" बार-बार उस स्थान की रज को उठाकर भरतजी नेत्रों से लगाते हैं।

 भरतलाल के भाव को समझने के लिए आइए , जरा प्रसंग की पृष्टभूमि में चलें।  राम राजा के पुत्र थे । हमेशा उन्होंने रत्नजटित पलंग पर अपनी रात गुजारी थी । यही स्थिति लक्ष्मण और किशोरीजी की भी थी । श्रृंगवेरपुर में राम पहली बार जमीन पर सोये थे । उनके लिए यह अद्भुत अनुभव रहा होगा । भरत के लिए तो यह मर्मान्तक पीड़ादायी था । उनके लिए यह सोचना भी कठिन था कि फूलों - सी सेज पर सोने वाले राजपुत्र धरती पर कुश की साँथरी अर्थात् चटाई बिछाकर सोयेंगे । भाई के जीवन की यह दुर्दशा भरतलाल जैसा भाई कैसे देख सकता था । इसीलिए भरत का शरीर शिथिल हो गया था । वह कुछ बोल भी नहीं पा रहे थे । अपनी वेदना को व्यक्त कर पाने में वह असमर्थ हो गये थे । उनके भीतर भावना का हाहाकार मचा हुआ था ।

कुटिया में झांककर देखा, जानकीजी के आभूषणों के कुछ कण बिन्दु वहाँ पडे थे, भरतजी ने उठाकर मस्तक व नेत्रों से लगाया, आँसू आ गये, माँ आपने संकेत छोडे है भरत के लिये, चिन्ता नहीं करना, भरतजी रो-रोकर गुह से कह रहे हैं भइया! ये कनक बिन्दु किसके है तुम जानते हो?

भरतजी ने कहा ये उस देवी के है जिनके पिता महाराज श्री जनकजी हैं, जिनके हाथों में योग और भोग दोनो बन्द हैं, ये बिन्दु उनके है जिनके श्वसुर महाराज दशरथजी हैं, सामान्य बात है ये क्या? ये महादेवी कौन है स्वयं? जिनके पति श्री रामजी स्वयं त्रिलोक के अधिपति हैं।

*प्रान नाथ रघुनाथ गोसाई।*
*जो बड़ होत सो राम बड़ाई।।*

भरतजी ग्लानि में डूबे हैं, जिनको मखमल के आसन पर सोना था मेरी वजह से कुश के आसन पर सोना पड़ रहा है, अब लखन भैया के बारे में भरतजी कहते है!

लालन जोगु लखन लघु लोने, भे न भाइ अस अहहिं न होने।
पुरजन प्रिय पितु मातु दुलारे, सिय रघुबीरहि प्रान पिआरे।
मृदु मूरति सुकुमार सुभाऊ, तात बाउ तन लाग न काऊ।

लक्ष्मणजी का स्मरण आते ही भरतजी रोने लगे, गुह तुमको मालूम नहीं, मेरा छोटा भाई लखन है न सारी अयोध्या का वो लाडला है, सब उसको लखनलाल कहकर पुकारते हैं, वो लाड प्यार से पला है, कभी उसके शरीर को न हमने ताप लगने दिया न शीत, आज मेरे पाप से उनको बन-बन में विचरण करना पड़ रहा हैं।

*बैरिउ राम बड़ाई करहीं, बोलनि मिलनि बिनय मन हरहीं।*
*ते अब फिरत बिपिन पदचारी, कंदमूल फल फूल अहारी।।*

भैया गुह! दुश्मन भी जिनकी प्रसंशा करते है आज वो नंगे पैर इस कठोर वन में विचरण कर रहे हैं, कन्द-मूल, फल का सेवन कर जी रहे हैं, मैं क्या बताऊँ गुह! मेरा ह्रदय फटा जा रहा है, भरतजी भगवान की बहुत देर रात तक चर्चा करते रहे, गुह ने कहा भगवन अब आप विश्राम करे, प्रातः काल फिर यात्रा पर जाना है, भरतजी का सोने का मन नहीं कर रहा है।

भरतजी शायद सूत्र दे रहे हैं रात्रि को सोने से पहले थोड़ी देर प्रभु चर्चा करो कोई ना कोई लीला, दो चौपाई या कोई ग्रन्थ पढकर सोइये, रात्रि को बहुत अच्छा विश्राम मिलेगा, हम लोग टीवी पर तनाव के भयानक दृश्य देखकर सोते हैं इसलिये सोते में भी तनाव, जाग्रत में भी तनाव, जो इस प्रयोग को कर सकते हैं अवश्य करें।

नींद तो भरतजी को आ नहीं रही है, रात्रि विश्राम हुआ, प्रातः काल सब लोग जागे हैं, अब यहाँ से आगे की यात्रा का संकेत मिलता है, प्रयाग की ओर अब हम लोगों को चलना है, प्रयाग चलेंगे तो थोड़ी तैयारी भी चाहिये, बोलिये राजा रामचन्द्र भगवान् की जय!

श्रंगबेरपुर से यात्रा आगे चलती है, सबने राम घाट पर स्नान किया है श्री गंगा माँ से पुनः सबने माँग की है कि भगवान के श्री चरणों का प्रेम हमको मिले, गुह ने बहुत सुन्दर-सुन्दर नावें मंगाई हैं, एक ही बार में सबको गंगा पार करा दिया।

यहाँ से श्री भरतजी ने अपना निश्चय और दृढ कर दिया, उन्होंने निश्चय कर लिया कि यहाँ तक तो मेरे भगवान भी रथ में आये थे, मैं भी आगे पैदल जाऊँगा क्योंकि मेरे भगवान भी यहाँ से पैदल गये हैं, जिस भूमी पर मेरे प्रभु के चरण पडे हैं उस पर तो मेरा शीश आना चाहिये यानी मुझे सर  के बल चलना चाहिये, भरतजी अन्तर्मन में विचार कर रहे हैं।

डॉ गोविंदराम शर्मा फलवा
 प्रधानाचार्य आसावरा
 9 मई 2020
[5/15, 9:20 AM] Rahul: *.. भाग-14... प्रेम गली..अति सांकरी...*
   खुसरो को आपने पढ़ा l हिंदी साहित्य का अंतरिक्ष अगणित उज्ज्वल नक्षत्रों से शोभायमान है l हिंदी में भक्त, प्रेमी और शृंगारी कवियों की संख्या सबसे अधिक है l भक्त और प्रेमी कवियों में  कबीर, नानक, सूरदास, तुलसीदास, मीरा, दादू और रसखान का स्थान  बहुत ऊंचा है l कबीर के प्रेम का आलम तो मत पूछो l कबीर ने जो कुछ भी कहा उसमें अनुभव की मात्रा अधिक है कल्पना की मात्रा कम, स्वयं कबीर कहते हैं... "तू कहता कागद लेखी, मैं कहता आंखन देखी...." कबीर ने जो कुछ कहा वह स्पष्ट, सत्य और निष्पक्ष कहा है...

प्रेम न बाड़ी उपजै, प्रेम न हाट बिकाय l
राजा परजा जेहि रुचै, सीस देइ ले जाय ll

प्रेम ना तो किसी बाग, उपवन, वन, बाड़ी में उपजता है; ना ही किसी बाजार में प्रेम बिकता है l चाहे राजा हो या प्रजा, चाहे अमीर हो या गरीब, चाहे कोई भी हो, जिसको प्रेम प्राप्त करना है; वह अपने आप को समर्पित करके प्रेम को प्राप्त कर सकता है l

 प्रेम प्रेम सब कोई कहै, प्रेम न चीन्हैं कोई l
आठ पहर भीना रहै, प्रेम कहावै सोई ll

    प्रेम सभी करना चाहते हैं,सभी प्रेम पाना चाहते हैं ; प्रेम के वास्तविक मार्ग पर चलना बहुत कम जानते हैं क्योंकि प्रेम प्रेम बोलने वाले प्रेम के वास्तविक स्वरूप से परिचित नहीं होते हैं l  प्रेम प्रेम बोलने के बजाय यदि प्रेम में संपूर्ण रूप से है डूबा जाये तब वास्तविक प्रेम की अनुभूति होती है और संपूर्ण प्रेम में डूबने के बाद कोई अपना पराया नहीं होता l

 प्रेम छिपाया ना छिपै,जा घट परगट होय l
 जो पै मुख बोलै नहीं, नैन देत हैं रोय ll

  इश्क-मुश्क छुपाए नहीं छुपते, इसी तरह प्रेम भी प्रकट हो ही जाता है; किंतु सच्चा प्रेम होना आवश्यक है; प्रेम को कितना भी छुपाया जाए लेकिन आंखें प्रेम को प्रकट कर ही देती है l

 कबीरा प्याला प्रेम का, अंतर लिया लगाय l
रोम रोम में रमि रहा, और अमल क्या खाय ll
 
  प्रेम का प्याला पीने के बाद आत्मा को और किसी खुराक की आवश्यकता नहीं है l कहने को तो हर कोई कह देगा कि मैंने प्रेम का प्याला पी लिया, लेकिन जो वास्तव में विष का प्याला पी कर पचाने की क्षमता रखता है, वही प्रेम का प्याला पीने का सच्चा अधिकारी है l ऐसा साधक प्रेम का प्याला पीने के पश्चात् और किसी की कामना नहीं करता है, क्योंकि प्रेम उसके रोम रोम में व्याप्त हो जाता है, फिर उसे अन्य किसी भी पैय की आवश्यकता नहीं रहती है l

  नैनों की करि कोठरी, पुतली पलंग बिछाय l
पलकों की चिक डारि कै,पिय को लिया रिझाय ll
   
     प्रेम आंखों के माध्यम से ह्रदय में पोषित होता है l यदि प्रिय को आंखों में बसाकर के पलकें बंद कर ली जाए तो फिर अन्य कोई नजर नहीं आएगा.. यदि अन्य कोई नजर आता है तो फिर प्रेम सच्चा प्रेम नहीं है l आंखों की पुतली पर पिया को आरूढ़ करने के पश्चात... जित देखूं तित तू ही तू... का भाव हो जाता है l पिया आंखों की पुतली पर विश्राम करने लगता है तब पलकों के बंद हो जाने से प्रिय के अन्यत्र कहीं और जाने की संभावना भी नहीं रहती l यदि पिया को रिझाना है तो उन्हें आंखों में बंद करना पड़ेगा l किसी गाने में नायिका के बोल... दिल में तुझे बसा के... कर लूंगी मैं बंद आंखें... पूजा करुंगी तेरी... हो के रहूंगी तेरी... सहसा याद आ जाते हैं, प्रिया पूर्ण रूप से यदि समर्पित है, तो प्रिय को उसका होना ही होना है l कबीर के अनुसार यहां प्रिया आत्मा है और प्रिय परमात्मा, किंतु यदि लौकिक जीवन में भी ऐसा हो जाए तो निश्चित ही प्रेम का उद्दात्त स्वरूप सफलीभूत होता है l

 प्रीतम को पतियां लिखूं, जो कहुं होय विदेस l
तन में मन में नैन में, ताको कहाँ संदेस ll

    विरह की तीव्र वेदना व्यक्त करते हुए कबीर कहते हैं कि यदि मेरे प्रियतम विदेश में हो तो मैं उनको पत्र लिख कर के अपनी पीड़ा, अपनी वेदना, अपनी व्याकुलता, अपना दर्द बता दूं किंतु जो इस तन-मन और आंखों में रमा हुआ हो उसको कैसे संदेश पहुंचाऊं...?? यह दर्द तो स्वयं प्रिय को ही महसूस करना पड़ेगा l कितनी बड़ी विडंबना है कि प्रिय आंखों और तन-मन में बसे हुए हैं किंतु फिर भी उन तक प्रिया अपनी विरह वेदना को पहुंचा पाने में अपनी असमर्थता व्यक्त कर रही है l प्रिया के पास ऐसा कोई साधन नहीं है कि वह अपनी विरह वेदना को अपने प्रिय तक पहुंचा सके इसलिए ऐसी स्थिति में प्रिय को ही प्रिया की विरह वेदना को आत्मसात करना होगा....

*.... क्रमशः...*

डॉ गोविंदराम शर्मा फलवा
 प्रधानाचार्य आसावरा 
5 मई 2020
[5/15, 9:20 AM] Rahul: *.. भाग-7... प्रेम गली..अति सांकरी...*
    कोई भी कितना भी बड़ा भौतिकवादी क्यों ना हो,चाहे कोई प्रत्येक कार्य कार्य से बोर हो सकता हो, लेकिन परमात्मा, भक्ति और प्रेम से कभी बोर नहीं हो सकता l यह आपस में पूरक हैं,संपूर्ण है l आवश्यकता है संपूर्ण मन से,समर्पित भाव से इनमें डूब जाने की,जो डूबा सो तीर गया..l वैसे यदि किसी भी कार्य में संपूर्ण रूप से डूब जाया जाए तो बोरियत का कोई वजूद ही नहीं बचता l मन के चंचल स्वभाव के कारण एक जगह मन टिक नहीं पाता, इस कारण से किसी भी कार्य से इंसान बोरियत महसूस करने लगता है l लेकिन परमात्मा भक्ति और प्रेम में नित नई अनुभूति होती है,इसलिए बोरियत का सवाल ही नहीं उठता..l
       हम बात कर रहे थे आदमी, परिवार, समाज व्यवस्था और प्रेम की... आजकल अक्सर यह कहते हुए सुना जाता है कि पहले जैसा प्रेम अब कहां...??  कहां गया पहले जैसा प्रेम ? किसने कम किया पहले जैसा प्रेम को...?
      पहले संयुक्त परिवार होते थे l एक परिवार में कई सदस्य एक साथ मिलकर के प्रेम पूर्वक रहते थे l परिवार में नवजात बच्चे कब बड़े हो जाते थे, माता-पिता को पता ही नहीं चलता था l कहीं किसी प्रकार के हित-अहित की कोई बात नहीं सोची जाती थी l सभी मिलजुल कर के काम करते थे l परिवार के कमजोर सदस्य का भी पूरा ध्यान रखा जाता था l प्रेम-आदर-श्रद्धा-सद्भाव की मिश्रित भावना इतनी प्रबल होती थी कि पिता यदि घर के अंदर होता था,तो पुत्र बाहर और पिता के बाहर जाने पर ही पुत्र घर के अंदर आता था l कभी पुत्र पिता की नजर से नजर मिला कर के बात नहीं करता था l परिवार में  बड़ो का मान-सम्मान और मर्यादा रखने के कारण पत्नी अपने पति को अथवा पति अपने पत्नी को कभी नाम लेकर के नहीं पुकारते थे l समाज में सभी बड़ों के लिए आदर और सम्मान का उच्च भाव था l बड़े कभी छोटों को हीन भाव से नहीं देखते थे l दूर के रिश्तेदार को भी अति घनिष्ट समझा जाता था l
     प्रातःकाल घर में ईश्वर भक्ति एवं आरती के स्वर गुंजायमान होते थे l श्रीलड्डू गोपाल जी और ठाकुर जी की पूजा होती थी l तुलसी पत्र और प्रसाद का वितरण होता था l परिवार में श्रीमद्भगवद्गीता एवं श्रीरामचरितमानस का पारायण होता था l चालीसा के द्वारा विभिन्न देवों की स्तुति की जाती थी l प्रातः काल उठते ही जय श्रीकृष्ण अथवा राम-राम से अभिवादन किया जाता था l प्रतिदिन बड़ों के चरण स्पर्श किए जाते थे l चिट्ठी पत्री लिखकर के नियमित हाल-चाल मालूम किए जाते थे l
   लेकिन धीरे-धीरे पाश्चात्य संस्कृति हावी होने लगी l संयुक्त परिवारों का विघटन होने लगा l अपने-पराए का भाव जाग्रत होने लगा l बेटी और बहु में फर्क समझा जाने लगा l भौतिकवाद इंसान को इतना लील गया कि दहेज की विभीषिका ने विकराल रूप धारण कर लिया l वैभव प्रदर्शन हेतु व्यर्थ के दिखावे के लिए बड़े-बड़े भोज के आयोजन होने लगे l सबकी अपनी-अपनी प्राइवेसी होने लग गई l शादी होते ही पुत्र अपना अलग से घर बसाने लगा l माता-पिता और बुजुर्ग परिवार में अकेले पड़ने लगे l प्रेम को निहित स्वार्थ और मतलब में सीमित कर दिया गया l
         श्रीरामानंद सागर निर्मित रामायण का जनवरी 1987 में दूरदर्शन पर प्रसारण शुरू होने से भारतीय संस्कृति का पुनर्जागरण प्रारंभ हुआ l उसके बाद बी आर चोपड़ा निर्मित महाभारत और तदनंतर टेलीविजन के विभिन्न चैनल्स पर श्री कृष्णा, जय वीर हनुमान, देवों के देव जय महादेव, जय जय शनिदेव इत्यादि धार्मिक कथाओं के प्रसारण से भारतीय संस्कृति का प्रसार हुआ l 
          टेलीविजन जो कि धार्मिक जागृती का पर्याय बना,उसे धीरे-धीरे मनोरंजन का साधन मात्र बना दिया गया l टेलीविजन की लत लग जाने के कारण बच्चों का पढ़ाई से ध्यान भटकने लगा l रही सही कसर मोबाइल ने पूरी कर दी और एंड्रॉयड फोन में तो सत्यानाश ही कर दिया l एंड्राइड फोन का उपयोग विद्यार्थी के द्वारा अपनी पढ़ाई हेतु ज्ञान प्राप्त करने के लिए किया जाए तब तक तो ठीक है किंतु अभिभावकों द्वारा यह नजर अवश्य रखनी चाहिए कि उनके बच्चे एंड्राइड फोन का सदुपयोग कर रहे हैं अथवा दुरुपयोग l अभिभावक ध्यान देवें कि जैसे बच्चे किस के संपर्क में हैं ? वो फोन पर क्या-क्या देखते हैं ? आदि-आदि...
         वांछित ज्ञान प्राप्ति के लिए उपयोग अथवा अभिभावकों से बातचीत के अलावा एंड्राइड फोन का दुरुपयोग ही समझना चाहिए l विद्यार्थियों ने ज्ञान प्राप्ति के अलावा एंड्रॉयड फोन को चैटिंग का मुख्य साधन मान लिया है l किस तरह की चैटिंग करते हैं कुछ संदेश देखिए :
 
”तमन्ना है मेरे मन की, हर पल साथ तुम्हारा हो….!!
जितनी भी सांसें चलें मेरी हर सांस पर नाम तुम्हारा हो….!!

 शब्दों में क्या तारीफ करूँ तुम्हारी...
तुम शब्दों में कहाँ समा पाओगे... 

बस इतना जान लो  कि जब बात चलेगी तुम्हारी...
मेरी आँखों में तुम ही नज़र आओगे....

 इतने रिश्ते है जिंदगी में...
बस अपना कोई नहीं है...

 कहते हैं प्यार और जहर में कोई फर्क नहीं होता ....
....जहर पीने के बाद लोग मर जाते हैं...
   और प्यार करने के बाद लोग जी नहीं पाते...

 लगे हो तुम मुझे भूल जाने में..
मासूम सी दुआ है नाकाम रहो तुम...

 कल रात तुम्हारा फोन 1.30 बजे तक बिजी था...
मेरा दिल कहता है, 
तुम अपनी मौसी की लड़की से बात कर रही होगी....

 कभी कभी हम किसी के लिए उतना जरूरी भी नहीं  होते, जितना हम सोच लेते हैं...

  चाहत जो तेरे दिल में है जानते हैं हम
तु रुसवा ए ज़माना हो इतना भी नहीं गाफिल

 मैं रब से दुआएं मांगता रहता था 
तब जाके तुम मेरा कॉल उठाती थी

  आदत सी लग गयी है तुझे हर वक़्त  देखने की ..
अब इसे प्यार  कहते है या पागलपन  ये मुझे पता नहीं...!!!

 सुना है आग लग गयी बेवफाओं की बस्ती में ।
या खुदा मेरे महबूब की खैर रखना..........!!!

 कितना मैं अधूरा तुम बिन...
हर पल तुम्हारे सामिप्य की आस में रहता हूँ...

 लफ्ज़ ढूंढ रहा था, इश्क़ बयां करने के लिए,
तेरा नाम लिया और इश्क़ मुक़्क़मल हो गया...

...... #क्रमशः........
डॉ गोविंदराम शर्मा फलवा
 प्रधानाचार्य आसावरा
 29 अप्रैल 2020
[5/15, 9:20 AM] Rahul: *.. भाग-10... प्रेम गली..अति सांकरी...*
     भक्ति शब्द की व्युत्पत्ति 'भज्' धातु से हुई है, जिसका अर्थ 'सेवा करना' या 'भजना' है, अर्थात् श्रद्धा और प्रेमपूर्वक इष्ट देवता के प्रति आसक्ति l नारदभक्तिसूत्र में भक्ति को परम प्रेमरूप और अमृतस्वरूप कहा गया है। इसको प्राप्त कर मनुष्य कृतकृत्य, संतृप्त और अमर हो जाता है। व्यास ने पूजा में अनुराग को भक्ति कहा है। गर्ग के अनुसार कथा श्रवण में अनुरक्ति ही भक्ति है। भारतीय धार्मिक साहित्य में भक्ति का उदय वैदिक काल से ही दिखाई पड़ता है।
अर्थात् भक्ति, भजन है। किसका भजन? ब्रह्म का, महान् का। महान् वह है जो चेतना के स्तरों में मूर्धन्य है, यज्ञियों में यज्ञिय है, पूजनीयों में पूजनीय है, सात्वतों, सत्वसंपन्नों में शिरोमणि है और एक होता हुआ भी अनेक का शासक, कर्मफलप्रदाता तथा भक्तों की आवश्यकताओं को पूर्ण करनेवाला है।
मानव चिरकाल से इस एक अनादि सत्ता (ब्रह्म) में विश्वास करता आया है। भक्ति साधन तथा साध्य द्विविध है। साधक, साधन में ही जब रस लेने लगता है, उसके फलों की ओर से उदासीन हो जाता है। यही साधन का साध्य बन जाता है। पर प्रत्येक साधन का अपना पृथक् फल भी है। भक्ति भी साधक को पूर्ण स्वाधीनता, पवित्रता, एकत्वभावना तथा प्रभुप्राप्ति जैसे मधुर फल देती है। प्रभुप्राप्ति का अर्थ जीव की समाप्ति नहीं है, सयुजा और सखाभाव से प्रभु में अवस्थित होकर आनन्द का उपभोग करना है।
आचार्यं रामानुज, मध्व, निम्बार्क आदि का मत यही है। महर्षि दयानन्द लिखते हैं : जिस प्रकार अग्नि के पास जाकर शीत की निवृत्ति तथा उष्णता का अनुभव होता है, उसी प्रकार प्रभु के पास पहुँचकर दुःख की निवृत्ति तथा आनन्द की उपलब्धि होती है। 'परमेश्वर के समीप होने से सब दोष दुःख छूटकर परमेश्वर के गुण, कर्म, स्वभाव के सदृश जीवात्मा के गुण, कर्म और स्वभाव पवित्र हो जाते हैं। परमेश्वर की स्तुति, प्रार्थना तथा उपासना से आत्मा का बल इतना बढ़ेगा कि पर्वत के समान दुःख प्राप्त होने पर भी वह नहीं घबराएगा और सबको सहन कर सकेगा।
ईसाई प्रभु में पितृभावना रखते हैं क्योंकि पाश्चात्य विचारकों के अनुसार जीव को सर्वप्रथम प्रभु के नियामक, शासक एवं दण्डदाता रूप का ही अनुभव होता है। ब्रह्माण्ड का वह नियामक है, जीवों का शासक तथा उनके शुभाशुभ कर्मो का फलदाता होने के कारण न्यायकारी दंडदाता भी है। यह स्वामित्व की भावना है जो पितृभावना से थोड़ा हटकर है। इस रूप में जीव परमात्मा की शक्ति से भयभीत एवं त्रस्त रहता है पर उसके महत्व एवं ऐश्वर्य से आकर्षित भी होता है। अपनी क्षुद्रता, विवशता एवं अल्पज्ञता की दुःखद स्थिति उसे सर्वज्ञ, सर्वसमर्थ एवं महान् प्रभु की ओर खींच ले जाती है। भक्ति में दास्यभाव का प्रारंभ स्वामी के सामीप्यलाभ का अमोघ साधन समझा जाता है। प्रभु की रुचि भक्त की रुचि बन जाती है। अपनी व्यक्तिगत इच्छाओं का परित्याग होने लगता है। स्वामी की सेवा का सातत्य स्वामी और सेवक के बीच की दूरी को दूर करनेवाला है। इससे भक्त भगवान् के साथ आत्मीयता का अनुभव करने लगता है और उसके परिवार का एक अंग बन जाता है। प्रभु मेरे पिता हैं, मैं उनका पुत्र हूँ, यह भावना दास्यभावना से अधिक आकर्षणकारी तथा प्रभु के निकट लानेवाली है। उपासना शब्द का अर्थ ही भक्त को भगवान् के निकट ले जाना है।
वात्सल्यभाव का क्षेत्र व्यापक है। यह मानवक्षेत्र का अतिक्रांत करके पशु एवं पक्षियों के क्षेत्र में भी व्याप्त है। पितृभावना से भी बढ़कर मातृभावना है। पुत्र पिता की ओर आकर्षित होता है, पर साथ ही डरता भी है। मातृभावना में वह डर दूर हो जाता है। माता प्रेम की मूर्ति है, ममत्व की प्रतिमा है। पुत्र उसके समीप निःशंक भाव से चला जाता है। यह भावना वात्सल्यभाव को जन्म देती है। रामानुजीय वैष्णव सम्प्रदाय में केवल वात्सल्य और कर्ममिश्रित वात्सल्य को लेकर, जो मार्जारकिशोर तथा कपिकिशोर न्याय द्वारा समझाए जाते हैं, दो दल हो गए थे (टैकले और बडकालै)- एक केवल प्रपत्ति को ही सब कुछ समझते थे, दूसरे प्रपत्ति के साथ कर्म को भी आवश्यक मानते थे।
स्वामी तथा पिता दोनों को हम श्रद्धा की दृष्टि से अधिक देखते हैं। मातृभावना में प्रेम बढ़ जाता है, पर दाम्पत्य भावना में श्रद्धा का स्थान ही प्रेम ले लेता है। प्रेम दूरी नहीं नैकट्य चाहता है और दाम्पत्यभावना में यह उसे प्राप्त हो जाता है। शृंगार, मधुर अथवा उज्जवल रस भक्ति के क्षेत्र में इसी कारण अधिक अपनाया भी गया है। वेदकाल के ऋषियों से लेकर मध्यकालीन भक्त संतों की हृदयभूमि को पवित्र करता हुआ यह अद्यावधि अपनी व्यापकता एवं प्रभविष्णुता को प्रकट कर रहा है।
        भक्ति क्षेत्र की चरम साधना सख्यभाव में समवसित होती है। जीव ईश्वर का शाश्वत सखा है। प्रकृति रूपी वृक्ष पर दोनों बैठे हैं। जीव इस वृक्ष के फल चखने लगता है और परिणामत: ईश्वर के सखाभाव से पृथक् हो जाता है। जब साधना, करता हुआ भक्ति के द्वारा वह प्रभु की ओर उन्मुख होता है तो दास्य, वात्सल्य, दाम्पत्य आदि सीढ़ियों को पार करके पुनः सखाभाव को प्राप्त कर लेता है। इस भाव में न दास का दूरत्व है, न पुत्र का संकोच है और न पत्नी का अधीन भाव है। ईश्वर का सखा जीव स्वाधीन है, मर्यादाओं से ऊपर है और उसका वरेण्य बंधु है। आचार्य वल्लभ ने प्रवाह, मर्यादा, शुद्ध अथवा पुष्ट नाम के जो चार भेद पुष्टिमार्गीय भक्तों के किए हैं, उनमें पुष्टि का वर्णन करते हुए वे लिखते हैं : कृष्णधीनातु मर्यादा स्वाधीन पुष्टिरुच्यते। सख्य भाव की यह स्वाधीनता उसे भक्ति क्षेत्र में ऊर्ध्व स्थान पर स्थित कर देती है।
       भक्ति का तात्विक विवेचन वैष्णव आचार्यो द्वारा विशेष रूप से हुआ है। वैष्णव संप्रदाय भक्तिप्रधान संप्रदाय रहा है। श्रीमद्भागवत और श्रीमद्भगवद्गीता के अतिरिक्त वैष्णव भक्ति पर अनेक श्लोकबद्ध संहिताओं की रचना हुई। सूत्र शैली में उसपर नारद भक्तिसूत्र तथा शांडिल्य भक्तिसूत्र जैसे अनुपम ग्रंथ लिखे गए। पराधीनता के समय में भी महात्मा रूप गोस्वामी ने भक्तिरसायन जैसे अमूल्य ग्रंथों का प्रणयन किया।      
    भक्ति-तत्व-तंत्र को हृदयंगम करने के लिए इन ग्रंथों का अध्ययन अनिवार्यत: अपेक्षित है। आचार्य वल्लभ की भागवत पर सुबोधिनी टीका तथा नारायण भट्ट की भक्ति की परिभाषा इस प्रकार दी गई है :
सवै पुंसां परो धर्मो यतो भक्ति रधोक्षजे ।अहैतुक्य प्रतिहता ययात्मा सम्प्रसीदति ॥ ११.२.६
भगवान् में हेतुरहित, निष्काम एक निष्ठायुक्त, अनवरत प्रेम का नाम ही भक्ति है। यही पुरुषों का परम धर्म है। इसी से आत्मा प्रसन्न होती है। 'भक्तिरसामृतसिन्धु', के अनुसार भक्ति के दो भेद हैं: गौणी तथा परा। गौणी भक्ति साधनावस्था तथा परा भक्ति सिद्धावस्था की सूचक है। गौणी भक्ति भी दो प्रकार की है : वैधी तथा रागानुगा। प्रथम में शास्त्रानुमोदित विधि निषेध अर्थात् मर्यादा मार्ग तथा द्वितीय में राग या प्रेम की प्रधानता है। आचार्य वल्लभ द्वारा प्रतिपादित विहिता एवं अविहिता नाम की द्विविधा भक्ति भी इसी प्रकार की है और मोक्ष की साधिका है। शांडिल्य ने सूत्रसंख्या १० में इन्हीं को इतरा तथा मुख्या नाम दिए हैं।
श्रीमद्भागवत् में नवधा भक्ति का वर्णन है :
श्रवणं कीर्तन विष्णो: स्मरणं पादसेवनम् ।अर्चनं वंदनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ॥ ७,५,२३
नारद भक्तिसूत्र संख्या ८२ में भक्ति के जो ग्यारह भेद हैं, उनमें गुण माहात्म्य के अन्दर नवधा भक्ति के श्रवण और कीर्तन, पूजा के अंदर अर्चन, पादसेवन तथा वंदन और स्मरण-दास्य-सख्य-आत्मनिवेदन में इन्हीं नामोंवाली भक्ति अंतभुर्क्त हो जाती है। रूपासक्ति, कांतासक्ति तथा वात्सल्यासक्ति भागवत के नवधा भक्तिवर्णन में स्थान नहीं पातीं।
        निगुर्ण या अव्यक्त तथा सगुण नाम से भी भक्ति के दो भेद किए जाते हैं। गीता, भागवत तथा सूरसागर ने निर्गुण भक्ति को अगम्य तथा क्लेशकर कहा है, परन्तु वैष्णव भक्ति का प्रथम युग जो निवृत्तिप्रधान तथा ज्ञान-ध्यान-परायणता का युग है, निर्गुण भक्ति से ही संबद्ध है। चित्रशिखंडी नाम के सात ऋषि इसी रूप में प्रभुध्यान में मग्न रहते थे। राजा वसु उपरिचर के साथ इस भक्ति का दूसरा युग प्रारंभ हुआ जिसमें यज्ञानुष्ठान की प्रवृत्तिमूलकता तथा तपश्चर्या की निवृत्तिमूलकता दृष्टिगोचर होती है। तीसरा युग कृष्ण के साथ प्रारंभ होता है जिसमें अवतारवाद की प्रतिष्ठा हुई तथा द्रव्यमय यज्ञों के स्थान पर ज्ञानमय एवं भावमय यज्ञों का प्रचार हुआ।
चतुर्थ युग में प्रतिमापूजन, देवमंदिर निर्माण, शृंगारसज्जा तथा षोडशोपचार (कलश-शंख-घंटी-दीप-पुष्प आदि) पद्धति की प्रधानता है। इसमें बहिर्मुखी प्रवृत्ति है। पंचम युग में भगवान् के नाम, रूप, गुण, लीला और धाम के अतीव आकर्षक दृश्य दिखाई देते हैं। वेद का यह पुराण में परिणमन है। इसमें निराकार साकार बना, अनंत सांत तथा सूक्ष्म स्थूल बना। प्रभु स्थावर एवं जंगम दोनों की आत्मा है। फिर जंगम चेतना ही क्यों ? स्थावर द्वारा ही उसकी अभिव्यक्ति और भक्ति क्यों न की जाय ?
वैष्णव आचार्य, कवि एवं साधक स्थूल तक ही सीमित नहीं, वे स्थूल द्वारा सूक्ष्म तक पहुँचे हैं। उनकी रचनाएँ नाम द्वारा नामी का बोध कराती हैं। उन्होंने भगवान् के जिन नामों रूपों लीलाओं तथा धामों का वर्णन किया है, वे न केवल स्थूल मांसपिंडों से ही संबंधित हैं, अपितु उसी के समान आधिदैविक जगत् तथा आध्यात्मिक क्षेत्र से भी संबंधित हैं। राधा और कृष्ण, सीता और राम, पार्वती और परमेश्वर, माया और ब्रह्म, प्रकृति और पुरुष, शक्ति और शक्तिमान्, विद्युत् और मेघ, किरण और सूर्य, ज्योत्स्ना और चंद्र आदि सभी परस्पर एक दूसरे में अनुस्यूत हैं। विरहानुभूति को लेकर भक्तिक्षेत्र में वैष्णव भक्तों ने, चाहे वे दक्षिण के हों या उत्तर के, जिस मार्मिक पीड़ा को अभिव्यक्त किया है, वह साधक के हृदय पर सीधे चोट करती है और बहुत देर उसे वहीं निमग्न रखती है। लोक से कुछ समय के लिए आलोक में पहुँचा देनेवाली वैष्णव भक्तों की यह देन कितनी श्लाघनीय है, कितनी मूल्यवान् है। और इससे भी अधिक मूल्यवान् है उनकी स्वर्गप्राप्ति की मान्यता। मुक्ति नहीं, क्योंकि वह मुक्ति का ही उत्कृष्ट रूप है, भक्ति ही अपेक्षणीय है। स्वर्ग परित्याज है, उपेक्षणीय है। इसके स्थान पर प्रभुप्रेम ही स्वीकरणीय है। वैष्णव संप्रदाय की इस देन की अमिट छाप भारतीय हृदय पर पड़ी है। उसने भक्ति को ही आत्मा का आहार स्वीकार किया है।
भक्ति तर्क पर नहीं, श्रद्धा एवं विश्वास पर अवलंबित है। पुरुष ज्ञान से भी अधिक श्रद्धामय है। मनुष्य जैसा विचार करता है, वैसा बन जाता है, इससे भी अधिक सत्य इस कथन में है कि मनुष्य की जैसी श्रद्धा होती है उसी के अनुकूल और अनुपात में उसका निर्माण होता है। प्रेरक भाव है, विचार नहीं। जो भक्ति भूमि से हटाकर द्यावा में प्रवेश करा दे, मिट्टी से ज्योति बना दे, उसकी उपलब्धि हम सबके लिए निस्संदेह महीयसी है। धी के ज्ञान और कर्म दोनों अर्थ हैं।
       हृदय श्रद्धा या भाव का प्रतीक है। भाव का प्रभाव, वैसे भी, सर्वप्रथम हृदय के स्पंदनों में ही लक्षित होता है ( स्रोत : विकिपीडिया ) ।
    अतः स्पष्ट होता है कि भक्ति के लिए मूल रूप से प्रेम स्थित होता है l

*...... क्रमशः......*

डॉ गोविंदराम शर्मा फलवा
 प्रधानाचार्य आसावरा 
2 मई, 2020
[5/15, 9:20 AM] Rahul: *.. भाग-11... प्रेम गली..अति सांकरी...*
     ईश्वर के प्रेम में पूर्णरूपेण डूब जाने के पश्चात फिर शेष क्या रहेगा किंतु जो मातृभूमि हमारा पालन पोषण करती है उसके प्रति भी हमारा दायित्व होता है और यदि राष्ट्र के प्रति प्रेम नहीं हो तो फिर सब कुछ व्यर्थ होता है l जिस प्रकार से माता का अपने पुत्र के प्रति वात्सल्य होता है, ठीक उसी प्रकार से नागरिक का अपने राष्ट्र के प्रति दायित्व एवं प्रेम होना चाहिए l 

देश से है प्रेम तो हर पल यह कहना चाहिए,
मैं रहूं या न रहूं भारत यह रहना चाहिए ll

     यहां देश और राष्ट्र की अवधारणा को स्पष्ट रूप से समझना चाहिए l देश का तात्पर्य भौगोलिक भूभाग से हैं जबकि राष्ट्र की अवधारणा उससे कहीं अधिक आगे उस भूभाग के साथ-साथ सभ्यता, संस्कृति, आचार-विचार, आहार-विहार, खानपान, नैतिक व मानवीय मूल्य इत्यादि सभी के सम्मिलित भाव से है l राष्ट्रप्रेम हमारा कर्तव्य भी है l
   प्रकृति के साथ छेड़छाड़ एवं पर्यावरण असंतुलन आज के युग की प्रमुख चिंता है और यह चिंता पर्यावरण प्रेम से दूर की जा सकती है l आज पर्यावरण प्रेम की महती आवश्यकता है l यदि पर्यावरण से प्रेम है तो प्रयास करके हमें प्रदूषण की रोकथाम के समस्त उपाय करने चाहिए l नदियों को दूषित होने से बचाना चाहिए l अधिकाधिक पेड़-पौधे लगाने चाहिए l वनों की अंधाधुंध कटाई नहीं करवानी चाहिए l  
     राजा में ईश्वर का निवास माना गया है और वर्तमान संकट के समय हमें सशक्त नेतृत्व प्राप्त हुआ है जिसका कि हमें सम्मान करना चाहिए l मैं अंधभक्ति की बात नहीं करता, किंतु यदि राजा सुयोग्य हो तो उसके प्रति जनता के द्वारा राज-प्रेम देश की उन्नति में कारगर सिद्ध हो सकता है l लोकतंत्र में सबकी अपनी अपनी राजनीतिक विचारधारा और प्रतिबद्धता होती है किंतु यदि नेतृत्व राष्ट्रहित के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर रहा हो ऐसे नेतृत्व को प्रेम से वंचित नहीं किया जा सकता l
     साहित्य-संगीत-कला विहीन मनुष्य को शास्त्रों में बिना पूंछ और बिना सींग का साक्षात पशु कहा गया है l इसलिए यदि वह मनुष्य होने की परिभाषा में आता है; तो उसे साहित्य,संगीत और कला का प्रेमी होना आवश्यक है l
      श्री कृष्ण ने कहा कि स्वधर्मे: निधनम श्रेयम पर: धर्मो भयावह: अतः मनुष्य का कर्तव्य है कि धार्मिक मान्यताओं के प्रति उसका प्रेम अनिवार्य हो l धर्म की अवधारणा अति व्यापक है l सनातन धर्म विश्व का सबसे पुराना धर्म है जिसमें सभी मानवीय मूल्यों की रक्षा का संकल्प है l धार्मिक-प्रेम का तात्पर्य पाखंड-ढोंग-अनाचार कदापि नहीं है ना ही यह अतिवादीता की शिक्षा प्रदान करता है l धर्म की शिक्षा तथा  सभ्यता-संस्कृति एवं मानवीय मूल्यों का ज्ञान ग्रंथों तथा पुस्तकों के प्रति प्रेम रखकर प्राप्त किया जा सकता है l
   भारतीय संस्कृति वसुधैव कुटुंबकम की भावना से ओतप्रोत है  जोकि प्राणी मात्र के प्रति प्रेम से पुष्ट होती है l जीवों से प्रेम का अभूतपूर्व दर्शन भारत में ही संभव है और संपूर्ण संसार को परिवार मानने की भावना ही मानव मात्र के प्रति प्रेम का संदेश प्रदान करती है.... कोई छोटा-बड़ा नहीं, कोई अपना-पराया नहीं, कोई जाति-पांति नहीं, कोई धर्म-पंथ नहीं, मनुष्य मात्र एक समान हो करके एक ही पिता की संतान है... जाति-पंथ-संप्रदाय आदि मनुष्य ने बनाए हैं ईश्वर ने नहीं... इसलिए प्रत्येक मनुष्य प्रेम का अधिकारी है, किसी भी मनुष्य से घृणा करना मतलब परमात्मा से घृणा करना है... मैं सोचता हूं इसीलिए राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने कहा था कि पाप से घृणा करो पापी से नहीं l
      परिवार को समय प्रदान करना परिवार के प्रत्येक सदस्य के प्रति समानता का भाव परिवार-प्रेम का द्योतक है l परिवार में पिता संतान से प्रेम प्राप्त करने की अभिलाषा रखता है किंतु व्यक्त नहीं कर पाता है इसलिए पितृ-प्रेम परिवार-प्रेम की रीढ़ है l श्री राम का पितृ-प्रेम विश्व प्रसिद्ध उदाहरण है l
    ईश्वर के पश्चात प्रेम की यदि कोई प्रतिमूर्ति है तो वह माता होती है l संतान के प्रति माता का प्रेम अवर्णनीय होता है किंतु महत्त्वपूर्ण विषय यह है कि संतान अपनी माता के प्रति कितना प्रेम रख पाती है l मातृ-प्रेम की कई कहानियां पढ़ी या सुनी जा सकती है... जब योग्य पुत्रों के होते हुए भी मां को वृद्धाश्रम में रहना पड़ता है, तब प्रेम के अस्तित्व पर गंभीर संकट खड़ा होता है l
      कहा गया है कि बैठना भाइयों के बीच में चाहे बैर ही हो...भाई के समान सगा कोई नहीं... भाई का भाई के प्रति प्रेम यद्यपि दृष्टिगोचर नहीं होता है तथापि एक अदृश्य छुपी हुई शक्ति एवं आशीर्वाद के समान होता है l श्रीराम-श्रीलक्ष्मण, श्रीराम-श्रीभरत का भ्रातृ-प्रेम अपने आप में प्रेम की परिभाषा पूर्ण करता है l
      आज के भौतिकवादी युग में  भागदौड़ भरी जिंदगी के दौरान  व्यक्ति स्वयं के प्रति भी ईमानदार नहीं होता और खुद से प्रेम नहीं रख पाता है l खुद से प्रेम का मतलब स्वयं के स्वास्थ्य का ध्यान रखना स्वयं के प्रति सजग व संवेदनशील होना इसका तात्पर्य कदापि नहीं है कि सिर्फ अपने अलावा किसी और के बारे में सोचना ही नहीं......
   
*....... क्रमशः.......*

डॉ गोविंदराम शर्मा फलवा
 प्रधानाचार्य आसावरा 
3 मई, 2020
[5/15, 9:20 AM] Rahul: *.. भाग-4... प्रेम गली..अति सांकरी...*
      खामोशी (1969) फिल्म में गुलज़ार साहब द्वारा लिखित लता मंगेशकर की आवाज में प्रेम की अनुभूति को कितने सुंदर शब्दों में व्यक्त किया गया है.."सिर्फ़ एहसास है ये.. रूह से महसूस करो..प्यार को प्यार ही रहने दो कोई नाम न दो..प्यार कोई बोल नहीं, प्यार आवाज़ नहीं..एक ख़ामोशी है, सुनती है, कहा करती है...

    इसके कई मायने हैं... प्रेम एक ऐसी खामोशी है जो कि पवित्र आत्मिक अनुभूति होती है l प्रेम किसी रिश्ते के बंधन में बंधा हुआ नहीं होता है, प्रेम तो अपने आप में ही एक ऐसा पवित्र संबंध होता है, जो बांधता नहीं है बल्कि मुक्त करता है...बंधन" हमेशा "दुख" देता हैं और "संबंध" हमेशा "सुख" देता हैं प्रेम का प्रेम से "संबंध" हैं,कोई "बंधन" नही हैं.l प्रेम दैहिक नहीं होता l प्रेम में आभार का भाव होता है, प्रभार का नहीं... प्रेम में ना ही अभाव का भाव होता है ना ही प्रभाव का... प्रेम व्यक्तिगत नहीं होता...किसी को पाना ही प्रेम नहीं होता...प्रेम तो वो है,जहां पाना भी मुमकिन ना हो और प्रेम भी बरकरार रहे। ना उम्र की सीमा हो..ना जन्म का हो बंधन..प्रेम हमउम्र हो ना हो,हमख्याल जरूर होना चाहीये l 
    प्रेम सत्यम शिवम सुंदरम की पवित्र अनुभूति है l शब्दों का आदान प्रदान भी प्रेम है,बस किसी का दिल न टूटे,कोई आहत न हो,मात्र प्रेम हो। चाहत की कोई हद नहीँ होती..सारी उम्र भी बीत जाए..मोहब्बत कभी कम नहीँ होती...और प्रेम को सिद्ध करने में कई जन्म कम पड़ जाते हैं,यह तो अपने आप,एक पल में स्वत: सिद्ध हो जाता है!
      राक्षस कन्या हिडिंबा प्रेम से वशीभूत होकर के पांडु पुत्र भीम से प्रेम करने लगती है l प्रेम राक्षस को भी मनुष्य के समीप ले आता है,किंतु शूर्पणखा के प्रणय प्रस्ताव को प्रेम नहीं कहा जा सकता वह तो वासना का पर्याय कही जाती है l प्यार और प्रेम से वशीभूत होकर के खूंखार से खूंखार जानवर भी जब मनुष्य से प्रेम करने लगता है,तो मनुष्य आपस में मनुष्य से प्रेम क्यों नहीं कर पाता है l जिस दिन आपस में प्रेमभाव-समानता-समता समाज में होगी,दावे के साथ कहा जा सकता है कि कभी भारत में धार्मिक लड़ाई,ऊंच-नीच के भाव, खत्म हो जाएंगे और देश तरक्की की ओर रफ्तार पकड़ेगा l
     अपनापन और विनम्रता प्रेम का आवश्यक तत्त्व है,खुद रूखापन प्रदर्शित करके किसी और दूसरे से अपनापन कैसे मिलेगा..?
  चाहत की कोई हद नहीँ होती..
सारी उम्र भी बीत जाए..
मोहब्बत कभी कम नहीँ होती.!!
 कोई फर्क नही पड़ता कि किसने किसे चाहा और कितना चाहा…..हमें तो ये पता है कि जब भी किसी ने किसी को सच्चे मन से चाहा और हद से ज्यादा चाहा तो निश्चित ही सच्ची मोहब्बत मुकम्मल होती है l राष्ट्रकवि गुप्तजी उर्मिला के विरह की भावाभिव्यक्ति करते हुए कहते हैं... दोनों ओर प्रेम पलता है... सखी पतंग भी जलता है... हां दीपक भी जलता है... दोनों और से प्रेम बराबर हो,नहीं तो किसी एक को दुखी होना पड़ता है...ख़ुश वो हैं जो प्रेम के वहम मे हैं.... और दुःखी वो हैं जो सच्चे प्रेम में हैं.....!!
 आंखों से आंखें मिलती है,और ह्रदय में प्रेम प्रस्फुटित होता है, जैसे कि कोई अपनी निधि को पहचान लिया गया हो... प्रेम यात्रा आरंभ हो जाती है l
    भरत मिलाप के समय श्रीराम की मर्यादा और भरतजी के प्रेम की श्रेष्ठता का निर्णय नहीं हो पा रहा था तब महाराज श्रीजनक,  भरतजी से कहते हैं कि "श्रीराम का धर्म  श्रेष्ठ हैं, किंतु भरत का प्रेम भी श्रेष्ठ हैं...प्रेम ऐसी दिव्य ज्योति है जिस पर किसी धर्म का बंधन नहीं है; प्रेम,निश्चल-निस्वार्थ हो तो ऐसा निस्वार्थ-प्रेम जब अनन्य भक्ति का रूप धारण कर लेता है, तब स्वयं विधाता भी सृष्टि के सारे नियम तोड़ कर भक्त के आगे हाथ बांधकर खड़े हो जाते हैं l"
   राजर्षि जनक आगे कहते हैं कि "हे ! भरत, यदि तुम श्रीराम से प्रेम करते हो तो श्री राम के चरणों में बैठ करके पूछो कि वह क्या चाहते हैं ?  उनकी इच्छा ही सर्वोपरि है,यदि श्री राम से सच्चा प्रेम है तो उनकी आज्ञा पालन ही तुम्हारा धर्म है...
    अंत में भरत श्रीराम से कहते हैं कि बड़े निर्मोही हो भैया !! प्रेम का कोई मोल नहीं आंका,तो श्रीराम कहते हैं कि प्रेम किया है तो बिन मोल बिक जाओ...

   तुलसीदास जी जब श्रीरामचरितमानस की रचना कर चुके तो भगवान ने कहा - कहिये आप को मुझसे क्या चाहिए ?
तुलसी बोले - प्रभु आपके चरणों का प्रेम दीजिये ।
श्रीराम ने पूछा - किसकी तरह का प्रेम चाहिए ,लक्ष्मण की तरह, भरत की तरह या हनुमान की तरह ? 

गोस्वामी ने कहा प्रभु ,
कामिहि नारि पियारी जिमि 

एक कामी के अंतःकरण में स्त्री के प्रति जितना प्रेम होता है, जितनी तीव्रता और आसक्ति होती है,आप वही वृत्ति मुझे दीजिये ।

और उसके साथ एक शब्द और जोड़ दिया,

लोभहि प्रिय जिमि दाम 

लोभी को जितनी आसक्ति धन में होती है उतनी मुझे आप के नाम में हो ।

लोभ , मोह , काम आदि जितनी वृत्तियों की निंदा की जाती है तुलसीदास जी ने उन्हें भक्ति के संदर्भ में जोड़ते हुए कहते है - कामी को जैसे नारी और लोभी को दाम प्रिय लगते है वैसे मुझे राम प्रिय लगें ।

भगवन ने पूछा - जब कामी बनने की वृत्ति आ गई तो लोभी क्यों बनना चाहते हो ?

गोस्वामीजी ने कहा - महाराज ! कामी में एक कमी है,उसका स्वभाव यह है कि जिसके प्रति आसक्ति है उसे पा लेने के बाद उसकी आसक्ति में कमी आ जाती है,परन्तु लोभी ही एक मात्र ऐसा है जो कितना भी पाए किन्तु उसे संतोष नही होता, इसलिए मैं यही चाहता हूं कि जब तक आप न मिले तब तक मै कामी जैसा रहूं और जब आप मिल जाएं तो लोभी जैसा हो जाऊं । प्राप्ति के बाद भी निरन्तर लगे कि नहीं-नहीं आपको अभी पाना बाकी है,राम नाम जाप बाकी है,यही स्थिति सच्चे प्रेम की है ।

मूल रहस्य यही है कि,संसार में मोह नहीं रहेगा,काम और लोभ नहीं रहेगा तो फिर संसार भी नहीं रहेगा ।

आवश्यकता इन वृत्तियों को नष्ट करने की नही बल्कि इनके साथ सामंजस्य बैठाने की है ।

शंकरजी और हम में अंतर यही है कि हम सिर्फ दो दृष्टियों से ग्रसित है । हम सिर्फ दो नेत्रों से संसार देख पाते है । राग और द्वेष ही वो दृष्टियां है ।

विवेक की तीसरी दृष्टि जो साधक विकसित कर लेता है फिर शंकरजी समान उसकी भी दृष्टि के सामने काम जल जाता है और राम शेष रहता है ।

    प्रेम पाने के बाद भी जी नहीं भरे और यदि चाहत बरकरार बनी रहे तो निश्चित ही प्रेम,प्रेम होता है जी भर जाए तो कैसी चाहत और कैसा प्रेम...?
     प्रेम मर्यादा के उल्लंघन की इजाजत नहीं देता l कुंती पुत्र अर्जुन और स्वामी विवेकानंद के एक-एक दृष्टांत से इसको स्पष्ट किया जा सकता है l अर्जुन दिव्यास्त्र की खोज में स्वर्ग को जाता है,वहां पर अप्सरा उर्वशी अर्जुन पर मोहित हो जाती है और प्रणय निवेदन करती है l अर्जुन उसे कहता है कि "यद्यपि दुनिया में कुछ भी असंभव नहीं है,किंतु मर्यादित पुरुषों के लिए मर्यादा का उल्लंघन अवश्य असंभव होता है..l मेरे पूर्वज पुरुर्रवा एवं आपके संबंधों के कारण आप मेरी माता हैं l अर्जुन उर्वशी का शाप मंजूर कर लेता है पर प्रणय निवेदन अस्वीकार कर देता है l
     स्वामी विवेकानंद के संबंध में एक दृष्टांत सुनने में आया l एक महिला स्वामीजी का लगातार पीछा करती थी,जहां पर भी स्वामी जी जाते थे,वह महिला वहां पर चली जाती थी l एक दिन स्वामी जी ने पूछ ही लिया कि :
 देवी ! मैं जहां पर भी जाता हूं, आप वहां चली आती हैं, 
कारण क्या है ? 
आप मुझसे क्या चाहती हैं ?
 आपकी मुझसे अपेक्षा क्या है ?

महिला ने कहा-" मैं आपसे शादी करना चाहती हूं l"
स्वामी जी ने पूछा- "आप मुझसे शादी क्यों करना चाहती है ?"

महिला ने उत्तर दिया- "मैं आपसे शादी करके,आपके जैसे पुत्र को जन्म देकर उसकी मां बनना चाहती हूं l"

कितना सुंदर जवाब था स्वामी जी का :
   स्वामी जी ने कहा- "माता ! इसके लिए मुझसे शादी करने की आवश्यकता क्या है ? आप मुझे ही अपना पुत्र मान लीजिए, मैं अभी से आपको अपनी मां मानता हूं l यह है प्रेम का उदात्त स्वरूप l

   कभी-कभी वहम् के कारण या त्रिकोणीय दृष्टिकोण के कारण प्रेम में दरार पड़ने लग जाती है...प्यार‬ का‪ रिश्ता इतना ‪मजबूत होना चाहिए कि कभी भी तीसरे‬ की वजह से‬ ये रिश्ता ना टूटे‬। कोसों दूर रहने पर भी सीता का श्रीराम से और राधा का श्रीकृष्ण से सच्चा प्रेम कभी कमजोर नहीं हुआ...तुझ से दूर रहकर..... मोहब्बत बढ़ती जा रही हैं.....क्या कहूँ..... कैसे कहूँ..... ये दूरी तुझे और करीब ला रही हैं ......

*...... क्रमशः.......*
डॉ गोविंदराम शर्मा फलवा
 प्रधानाचार्य आसावरा 
26 अप्रैल 2020
[5/15, 9:20 AM] Rahul: *.. भाग-5... प्रेम गली..अति सांकरी...*
   संयोग आनंद की अनुभूति प्रदान करता है,और वियोग दुख की...वियोग में जो आनंद की अनुभूति कर ले,वह उत्तम प्रेम है,किंतु प्रेम में अवसाद और विषाद का कोई स्थान नहीं l..प्रेम सच्चिदानंद स्वरूप है; सत् यानि तीनों कालों में एक रस हो,जो ज्ञाता हो वह चित् कहलाता है,जिसका नाश ना हो ऐसा सुख आनंद कहलाता है l प्रेम प्रार्थना है,किंतु प्रार्थना याचना नहीं है l
     प्रेम ईश्वरीय देन है,प्रपंच करके  पंचायती द्वारा प्रेम में बाधक बनने के कई मामले सामने आते हैं यह एक प्रकार का गुनाह है; प्रेम में प्रपंच का कोई स्थान नहीं है,अत: प्रपंच से बचना चाहिए l 

    कल्याण के भगवत्प्रेम विषयक अंक में"प्रेम-तत्त्व" को निम्नलिखित अनुसार रूपाइत किया है :

01. वह प्रेम, प्रेम नहीं है, जिसका आधार किसी इन्द्रियका विषय हो।

02. नियमों के सारे बन्धनों का अनायास आप-से-आप टूट जाना ही प्रेम का एकमात्र नियम है।

03. जहाँ तक नियम जान-बूझकर तोड़े जाते हैं,वहाँ तक प्रेम नहीं है,कोई-न-कोई आसक्ति तुमसे वैसा करवा रही है,प्रेम में नियम तोड़ने नहीं पड़ते,परन्तु उसका बन्धन आप-से-आप टूट जाता है।

04. प्रेम में एक विलक्षण महत्ता होती है,जो नियमों की ओर देखना नहीं जानती।

05. अपना सुख चाहने वाला तो हर कोई हो सकता है,जिसके प्रेम का कोई अर्थ नहीं...l

06. प्रेमास्पद यदि प्रेमी के सामने ही उसकी सर्वथा अवज्ञा कर किसी नवीन आगन्तुक से प्रेमालाप करे तो इससे प्रेमी को क्षोभ नहीं होना चाहिए,उसे तो सुख ही होना चाहिए,क्योंकि इस समय उसके प्रेमास्पद को सुख हो रहा है। ( कोई भी इसको अतिरेक-अतिशयोक्ति कह सकता है, जबकि वास्तविक प्रेम में ना तो यह अतिरेक है ना हीं अतिशयोक्ति )

07. जो वियोग-वेदना, अपमान-अत्याचार और भय-भर्त्सना आदि सबको सहन करने पर भी सुखी रह सकता है, वही प्रेम के पाठ का अधिकारी है।

08. प्रेम जबान की चीज नहीं,  जहाँ लोक-परलोक के अर्पण की तैयारी होती है,वहीं प्रेम का दर्शन हो सकता है।

09. प्रेम के दर्शन बड़े दुर्लभ हैं, सारा जीवन केवल प्रतीक्षा में बिताना पड़े,तब भी क्षोभ करने का अधिकार नहीं।

10. प्रेम, प्रेम के लिये ही निस्वार्थ भाव से किया जाता है और इसकी साधना में बिना विराम के नित्य नया उत्साह बढ़ता है।

11. प्रेम अनिर्वचनीय है,प्रेम का स्वरूप केवल प्रेमियों की हृदयगुफाओं में ही छिपा रहता है। जो बाहर आता है, सो तो उसका कृत्रिम स्वरूप होता है, प्रेम की परछाई मात्र....
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                                        “कल्याण-भगवत्प्रेम अंक”
   गीताप्रेस,गोरखपुर
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    "जय जय श्री राधे"
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     प्रेम और मोह (प्यार) एक ही सिक्के के दो पहलु हैं.. किंतु इनमें अंतर है... अंतर का दर्शन कीजिए...

   प्रेम भगवद विषयक है, अर्थात यदि प्रेम का भाव हो तो ऐसा हो कि जैसे ईश्वर से...परमात्मा से प्रेम कर रहे हैं हम... और संसार विषयक मोह कहलाता है...

१-प्रेम आत्मा का विषय है जो परमात्मा से किया जाता है..
मोह शरीर का विषय है जो संसार से किया जाता है l

२-प्रेम शुक्लपक्ष है,जो क्रमशः बढ़ता है.
मोह कृष्णपक्ष है,जो क्रमशः घटता है l

३-प्रेम वयनिरपेक्ष है,जिसमें उम्र की कोई तुलना नहीं होती.
मोह वयसापेक्ष है,जो उम्र सापेक्ष होता है l

४- प्रेम प्रकाश है,जो परमात्मा के प्रकाश में विलीन हो जाता है..
मोह अन्धकार है,जो नरक सदृश अंधकार में विलीन हो जाता है l

५-प्रेम पूर्ण है,जिसकी परिणति पूर्णिमा है..
मोह अपूर्ण है,जिसकी परिणति अमावस्या है l

६-प्रेम अंतरण है,जिसकी अभिव्यक्ति आँखों से होती है.
मोह वहिरंग है जिसकी अभिव्यक्ति मुख के द्वारा होती है l

७-प्रेम हो जाता है,जो अधिकांश विरह से उत्पन्न होता है.
मोह किया जाता है,जो मिलन से होता है l

८-मोह क्षणिक और प्रेम अनादि है...

९-प्रेम और मोह दोनों में आंसू आते हैं,मोह के आंसू बांधते हैं और प्रेमाश्रु कपाट खोलते हैं !!!
..................................
प्रेम से कहिये जय श्री राधे
..................................

 संतान द्वारा माता-पिता के प्रेम पर संदेह किया जाता है.. माता-पिता के स्नेह पर संशय करना पाप है,माता-पिता के द्वारा जो भी दिया जाए प्रसन्नता पूर्वक संतान को ग्रहण करना चाहिए... बेटी जब भी पिता को याद करती है
तो साथ में माँ भी दिखती है...
कितना सुकून है...
कोई भी पुरूष 
शायद अपने स्नेही प्रेमिल स्वभाव में 
आधा स्त्री होता है...

*..........क्रमशः..............*

डॉ गोविंदराम शर्मा फलवा
 प्रधानाचार्य आसावरा
27 अप्रैल 2020
[5/15, 9:20 AM] Rahul: *.. भाग-8... प्रेम गली..अति सांकरी...*
       बच्चों के लिए मेरी शिक्षा को मेरी खडूस वृत्ति करार दी जाकर यह भी कहा जा सकता है कि मैं आज के बच्चों पर किसी प्रकार का कोई प्रतिबंध लगा रहा हूं,आख़िर बच्चों को भी अपना जीवन जीने का अधिकार है और जनरेशन गैप तथा समय काल परिवेश के अनुसार सब चीजें बदलती रहती है, पुरातन बातें या परंपराएं या मान्यताएं आज की पीढ़ी के बच्चों पर नहीं थोपी जा सकती, यदि बच्चे अपने हम-उम्र बच्चों के साथ किसी प्रकार का व्यवहार नहीं रखेंगे प्रीत-प्रेम नहीं रखेंगे तो फिर किसके साथ रखेंगे ? प्रश्न उठाने वालों का प्रश्न उठाया जाना स्वाभाविक है l उनकी बात भी सही है लेकिन मैंने यह भी कहा था कि प्रेम वय-निरपेक्ष होता है l मैं यह नहीं कहता कि आज के बच्चे चींटियों को आटा डालने के लिए जाए अथवा गायों को चारा खिलाने के लिए समय निकाले या और कोई दान-पुण्य का कार्य करें अथवा प्रतिदिन मंदिर जाएं l मंदिर जाते हैं कई,लेकिन सिर्फ मांगने के लिए ; अहेतुकि भक्ति कितने बच्चे कर पाते हैं...??
      यदि आज के बच्चे किसी के फोन में ₹500 का रिचार्ज करवाते हैं या अपने साथी के साथ होटल में चाय-नाश्ता-लंच-डिनर इत्यादि पर ₹5000 खर्च कर देते हैं और वो ही बच्चे किसी भिखारी को भरपेट खाना खिलवा देते हैं अथवा किसी जरूरतमंद की मदद कर देते हैं तब तो ठीक है लेकिन यदि कोई बच्चा अपने साथी का मोबाइल रिचार्ज तो खुशी-खुशी करवा देता है और भिखारी को देख कर के नाक भौं सिकोड़ना है तब फिर कहां रहा उसका प्रेम..??
      प्रेम शाश्वत है, इसलिए प्रेम करने वाले के लिए एक भिखारी के लिए भी उतना ही प्रेम होना चाहिए जितना कि अपने साथी के लिए होता है l प्रेम में ना कोई छोटा होता है, ना कोई बड़ा होता है, ना कोई विशेष होता है, ना कोई तुच्छ होता है, प्रेम सभी के लिए सिर्फ प्रेम होता है l निष्काम प्रेम ही सच्ची भक्ति है.....
         एक अम्मा की कथा याद आ जाती है :
        एक गाँव में एक बूढ़ी माई रहती थी । माई का आगे – पीछे कोई नहीं था इसलिए बूढ़ी माई बिचारी अकेली रहती थी । एक दिन उस गाँव में एक साधू आया । बूढ़ी माई ने साधू का बहुत ही प्रेम पूर्वक आदर सत्कार किया ।
जब साधू जाने लगा तो बूढ़ी माई ने कहा – “ महात्मा जी ! आप तो ईश्वर के परम भक्त है । कृपा करके मुझे ऐसा आशीर्वाद दीजिये जिससे मेरा अकेलापन दूर हो जाये । अकेले रह – रह करके उब चुकी हूँ ”
साधू ने मुस्कुराते हुए अपनी झोली में से बाल – गोपाल की एक मूर्ति निकाली और बुढ़िया को देते हुए कहा
 – “ माई ये लो आपका बालक है, इसका अपने बच्चे की तरह प्रेम पूर्वक लालन-पालन करती रहना। बुढ़िया माई बड़े लाड़-प्यार से ठाकुर जी का लालन-पालन करने लगी।
एक दिन गाँव के कुछ शरारती बच्चों ने देखा कि माई मूर्ती को अपने बच्चे की तरह लाड़ कर रही है । नटखट बच्चो को माई से हंसी – मजाक करने की सूझी ।
 उन्होंने माई से कहा – “अरी मैय्या सुन ! आज गाँव में जंगल से एक भेड़िया घुस आया है, जो छोटे बच्चो को उठाकर ले जाता है। और मारकर खा जाता है । तू अपने लाल का ख्याल रखना, कही भेड़िया इसे उठाकर ना ले जाये !
बुढ़िया माई ने अपने बाल-गोपाल को उसी समय कुटिया मे विराजमान किया और स्वयं लाठी (छड़ी) लेकर दरवाजे पर पहरा लगाने के लिए बैठ गयी।
अपने लाल को भेड़िये से बचाने के लिये बुढ़िया माई भूखी -प्यासी दरवाजे पर पहरा देती रही। पहरा देते-देते एक दिन बीता, फिर दुसरा, तीसरा, चौथा और पाँचवा दिन बीत गया।
बुढ़िया माई पाँच दिन और पाँच रात लगातार, बगैर पलके झपकाये -भेड़िये से अपने बाल-गोपाल की रक्षा के लिये पहरा देती रही। उस भोली-भाली मैय्या का यह भाव देखकर, ठाकुर जी का ह्रदय प्रेम से भर गया, अब ठाकुर जी को मैय्या के प्रेम का प्रत्यक्ष रुप से आस्वादन करने की इच्छा हुई ।
भगवान बहुत ही सुंदर रुप धारण कर, वस्त्राभूषणों से सुसज्जित होकर माई के पास आये। ठाकुर जी के पाँव की आहट पाकर माई ड़र गई कि “कही दुष्ट भेड़िया तो नहीं आ गया, मेरे लाल को उठाने !” माई ने लाठी उठाई और भेड़िये को भगाने के लिये उठ खड़ी हूई ।
तब श्यामसुंदर ने कहा – “मैय्या मैं हूँ, मैं तेरा वही बालक हूँ -जिसकी तुम रक्षा करती हो!”
माई ने कहा – “क्या ? चल हट तेरे जैसे बहुत देखे है, तेरे जैसे सैकड़ो अपने लाल पर न्यौछावर कर दूँ, अब ऐसे मत कहियो ! चल भाग जा यहा से ।
ठाकुर जी मैय्या के इस भाव और एकनिष्ठता को देखकर बहुत ज्यादा प्रसन्न हो गये । ठाकुर जी मैय्या से बोले – “अरी मेरी भोली मैय्या, मैं त्रिलोकीनाथ भगवान हूँ, मुझसे जो चाहे वर मांग ले, मैं तेरी भक्ती से प्रसन्न हूँ”
बुढ़िया माई ने कहा – “अच्छा आप भगवान हो, मैं आपको सौ-सौ प्रणाम् करती हूँ ! कृपा कर मुझे यह वरदान दीजिये कि मेरे प्राण-प्यारे लाल को भेड़िया न ले जाय” अब ठाकुर जी और ज्यादा प्रसन्न होते हुए बोले – “तो चल मैय्या मैं तेरे लाल को और तुझे अपने निज धाम लिए चलता हूँ, वहाँ भेड़िये का कोई भय नहीं है।” इस तरह प्रभु बुढ़िया माई को अपने निज धाम ले गये।
भक्तों ! भगवान को पाने का सबसे सरल मार्ग है, भगवान को प्रेम करो – निष्काम प्रेम जैसे बुढ़िया माई ने किया इस कहानी से शिक्षा मिलती है कि हमें अपने अन्दर बैठे ईश्वरीय अंश की काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहंकार रूपी भेड़ियों से रक्षा करनी चाहिए । जब हम पूरी तरह से तन्मय होकर अपनी पवित्रता और शांति की रक्षा करते है तो उसे प्रेम के वशीभूत होकर के एक न एक दिन ईश्वर हमें दर्शन जरुर देते है ।

     *❣️🌷"जय श्री राधे कृष्ण🌷❣️*
           ...... प्रेम तो प्रेम है बस... उसका ना कोई आदि ना कोई अंत... ना कोई अपना ना कोई पराया.... ना कोई राग ना कोई द्वेष.... यदि रात को 2 बजे तक चैटिंग हो सकती है, तो रात को 11 बजे पड़ोसी को रेलवे स्टेशन तक छोड़ने जाने में भी कोई दिक्कत नहीं होनी चाहिए.... यदि साथी को खुश करने के लिए ₹500 का गुलदस्ता दिया जा सकता है तो ₹100 खर्च करके पर्यावरण संवर्धन हेतु पौधे लगाए जाने में कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिए.....

*........... क्रमशः..............*
डॉ. गोविंदराम शर्मा फलवा
 प्रधानाचार्य आसावरा 
1 मई, 2020
[5/15, 9:20 AM] Rahul: *.. भाग-12... प्रेम गली..अति सांकरी...*
    प्रेम विषयक मेरी बात को पढ़कर के मेरे कवि मित्र ने कहा कि सर आपने तो पगला दिया मुझे l पागल, प्रेमी और कवि की कल्पनाएं एक से होती है l कभी जब एक अलौकिक आनंद की दशा में जागृत होता है तब लोग उसे पागल कहते हैं l प्रेमी की दशा भी ऐसी ही होती है पर प्रेमी अपने आनंद को प्रकट नहीं कर सकता; वह एकांत में अकेले में आनंद का अनुभव करना पसंद करता है और कवि स्वयं अनुभव करके दूसरों को बांटता है दोनों में यही अंतर है : जैसा कि किसी ने कहा है ;

इश्क कहता है कि आलम से जुदा हो जाओ l
हुस्न कहता है कि जिधर जाओ नया आलम है ll

प्रेमी इश्क का उपासक होता है और कवि हुस्न का l गोस्वामी जी ने कीचड़ जैसे तुझ पदार्थ को ले करके उस पर बीती हुई प्रकृति की एक अत्यंत साधारण घटना को लेखनी से चमत्कृत कर दिया :

हृदय न विदरेउ पंक जिमि, बिछुरत प्रीतम नीर l
जानत हों मोहि दीन्ह विधि, यह जातना सरीर ll

     अर्थात्, प्रियतम जल के बिछड़ते ही कीचड़ का ह्रदय फट गया; किंतु मेरा नहीं फटा l इससे यह मालूम होता है कि विधाता ने मुझे यातना भोगने के लिए ही यह शरीर दिया है l कितने ही लोग कविता पढ़ कर के प्रेमोन्मत्त हो जाते हैं पर स्वयं कवि कविता को लिख चुकने पर निश्चिंत सा होकर अपने काम में लग जाता है l
 
     श्रद्धेय स्वामीजी श्री  रामसुखदासजी महाराज के मुखारविंद से..हे नाथ ! मैं आपको भूलूँ नहीं !!   प्रेम मुक्तिसे भी आगे की चीज है । मुक्ति तक तो जीव रस का अनुभव करनेवाला होता है, पर प्रेम में वह रस का दाता बन जाता है।l

जो प्रेम गली में आया ही नहीं
प्रीतम का ठिकाना क्या जाने...
जिसने कभी प्रीत लगाई नहीं
वह प्रीत निभाना क्या जाने.....
मीरा थी दिवानी मोहन की 
संसार दीवाना क्या जाने.....
जिस दिल में न पैदा दर्द हुआ 
वो पीर पराई क्या जाने....
   
   शरीर से प्रेम है तो आसन योग व्यायाम करें,
साँसों से प्रेम है तो प्राणायाम करें,
आत्मा से प्रेम है तो ध्यान करें,
परमात्मा से प्रेम है तो समर्पण करें,
देश से प्रेम है तो अपने घर मे रहें

    यदि तुम संसारी लोगों पर 99 उपकार करो पर उनका एक काम नहीं करो तो वे तुम्हारा मुंह भी देखना पसंद नहीं करेंगे।
परन्तु ईश्वर के समक्ष यदि तुम 99 अपराध करो पर 1 कार्य उनकी पसंद का करो तो वे तुम्हारे सब 
अपराध माफ़ कर देंगे |
मनुष्य के प्रेम में और भगवान् के प्रेम में जमीन - आसमान का अंतर है |

*... क्रमशः....*

डॉ गोविंदराम शर्मा फलवा
 प्रधानाचार्य आसावरा 
4 मई2020 Rahul: *.. भाग-3 प्रेम गली..अति सांकरी...*
     किसी ने पूछा प्यार क्या है ?
 बहुत सुंदर जवाब मिला..
 रोज आंखें खुलते ही जिसकी याद आए,वह है प्यार
 जिसकी आवाज सुनने के लिए सारा दिन इंतजार रहे,वह है प्यार
 जिससे झगड़ा करने के बाद भी उसके मनाने का इंतजार रहे,वह है प्यार
 पूरी दुनिया की खुशी में भी एक इंसान की कमी उदास करे,वह है प्यार 
किसी को सोचकर अचानक चेहरे पर मुस्कुराहट आ जाए,वह है प्यार....
..... प्रेम, प्रीति, प्यार,मोह,वासना,आसक्ति और कामुकता में अंतर समझना बहुत आवश्यक है...
    अमृतलाल नागर ने अपने ग्रंथ मानस के हंस में बताया कि तुलसीदास अपनी पत्नी रत्नावली के प्रति बहुत आसक्त थे l एक बार वे भारी बारिश में उफनती हुई नदी को पार करके मध्य रात्रि में अपनी पत्नी से मिलने के लिए अपने ससुराल पहुंच गए l पत्नी ने जब रामबोला को विक्षिप्त एवं कामुक हालात में अपने पास आया देखा तो चिंता व्यक्त करते हुए कहा कि :
 ‘अस्थि चर्म मय देह यह,ता सों ऐसी प्रीत। 
नेकु जो होती राम से, तो काहे भव-भीत ll’ 
यानी इस हाड़ मांस के देह से इतना प्रेम...,अगर इतना प्रेम राम से होता तो जीवन सुधर जाता।’
  पत्नी का इतना कहना था कि रामबोला का अंतर्मन जग उठा और वह एक पल भी वहां रुके बिना राम की तलाश में चल दिए और राम से ऐसी प्रीत लगी कि विश्व प्रसिद्ध रामचरितमानस की रचना कर दी l वर्तमान में जहां भी रामकथा होती है,वहां राम के साथ तुलसीदास जी का भी नाम श्रद्धा के साथ लिया जाता है।
     'चमेली की शादी' फिल्म में प्यार के टिप्स दिए जाते हैं l एक अन्य फिल्म में 'लव-गुरु' का कांसेप्ट है,जबकि प्रेम सिखाया नहीं जाता,प्रेम अंतरतम में स्थित होता है और प्रियतम को देखकर स्वत: जाग्रत होता है,जैसे कि शकुंतला को देख कर के दुष्यंत के मन में जाग्रत हुआ था l
    अमीर खुसरो के दोहों में प्रेम की अनन्यतम गहराई व्याप्त है; यद्यपि खुसरो के दोहों में कबीर की तरह ही आत्मा-परमात्मा के प्रेम की गहराई का तत्त्व मिलता है तथापि प्रेम के संदर्भ में खुसरो के कुछ दोहों का अवलोकन करना समीचीन होगा :

  खुसरो दरिया प्रेम का, सो उल्टी वाकी धार !
  जो उबरा सो डूब गया, जो डूबा वो पार !

  उन्होंने ईश्वर को पाने में सफल होने के लिए उसके प्रेम में डूबने की बात की थी। लेकिन यह भी सच्चाई है कि प्रेम में सफलता तभी मिलेगी जब उसमें पूरी तरह से डूब जाएं। यानी प्रेम के प्रति लगन इतनी सच्ची एवं गहरी हो कि ईर्ष्या, द्वेष,स्वार्थ,मोह इत्यादि का कोई स्थान नहीं रहे और सामने वाले में कुछ भी बुराई अनुभूत ना हो;यदि सामने वाले में कुछ बुराई हो भी सही;तो भी प्रेम के प्रभाव से वह बुराई अच्छाई में परिवर्तित हो जाए l
     खुसरो के एक अन्य दोहे के अनुसार प्रेम की बाजी में हार और जीत दोनों ही अपने पक्ष में होते हैं; हार गए तो उनके हो गए और जीत गए तो उनको पा लिया :

  खुसरो  बाजी  प्रेम की, मैं  खेली  पी  के संग l
जीत गई  तो  पिया  मेरे, हारी  तो  पी  के संग ll

    प्रिय को नैनों में बसा कर के पलकों से ढक देने की बात कहते हुए ना तो किसी और को देखने की इच्छा रहती है और ना ही किसी और को देखने देने की इजाजत ;

     आ साजन मेरे नैनन में, सो पलक ढांप तोहे दूं।
     न मैं देखूं औरन को, न तोहे देखन दूं।।

      जिन नैनों में प्रिय को बसाया; वही नैन बेचैन हो जाते हैं,जब प्रिय के दर्शन नहीं हो पाते :

     रैन बिना जग दुखी है,और दुखी चन्द्र बिन रैन।
     तुम बिन साजन मैं दुखी, और दुखी दरस बिन नैन।।

     बिछोह इतना दुखदाई होता है कि बिछड़ने से रात-दिन कुछ भी नहीं भाता सिर्फ जलन ही जलन होती रहती है,इतनी जलन कि ताप भी सहन नहीं हो पाता :

    साजन ये मति जानियो,तोहे बिछड़त मोको चैन।
    दिया जलत है रात में,और जिया जलत दिन रैन।।

   प्रिय का सामीप्य पाते ही समर्पण की ऐसी पराकाष्ठा होती है कि स्वयं को भुला दिया जाता है; स्वयं की सुध-बुध तक खो बैठते हैं :

  अपनी छवि बनाय के, मैं तो पी के पास गयी।
   जब छवि देखि पीहूं की, सो अपनी भूल गयी।।

 तन और मन समर्पित होकर के प्रिय के एकाकार हो जाते हैं तब स्वयं का अस्तित्व विसर्जित हो जाता है :

   खुसरो रैन सुहाग की, जागी पी के संग।
   तन मेरो मन पिया को, दोऊं भए इक रंग।।

  और ऐसे एकाकार होते हैं कि अभेद करना मुश्किल हो जाता है, दो होते हुए भी सिर्फ़ एकाकार की अनुभूति होती है :

   खुसरो और 'पी' एक हैं, पर देखन में दोय !
   मन को मन से तोलिये, तो दो मन कबहूँ ना होय ll

  इस एकाकार में स्वार्थ,मोह,ईर्ष्या,झूठ,दुराव,छिपाव,छल,कपट,प्रपंच बहुत ही बाधक है :

   मोह काहे मन में भरे, प्रेम पंथ को जाए !
  चली बिलाई हज्ज को, नौ सो चूहे खाए !!

  सारे ग्रंथ पढ़कर विद्वान हो जाएं और प्रेम के ढाई अक्षर नहीं पढ़ पाए तो सब व्यर्थ रहते हैं,और प्रेम के ये ढाई अक्षर कोई बिरला ही पढ़ पाता है;जो आत्मा का आत्मा से और आत्मा का परमात्मा से भेद नहीं समझता :

   खुसरो पाती प्रेम की बिरला बांचे कोय!
    वेद, कुरआन, पोथी पढ़े, प्रेम बिना का होय l

   अमृता प्रीतम कहती हैं कि "स्त्री तो खुद डूब जाने को तैयार रहती हैं,यदि समन्दर उसकी पसंद का हो l" प्रेम अतुलनीय होता है,मीरा का प्रेम अपनी जगह उत्तम है, राधा का प्रेम अपनी जगह उत्तम और दोनों ही स्थिति श्रेष्ठ हैं l शरीर पर अधिकार प्राप्त करना प्रेम नहीं है,मन को जीतना एवं आत्मा का आत्मा से एकाकार प्रेम है l
   पुरुष और नारी में सभी कुछ समरूप नहीं होता है .....पुरुष की स्मृति इंटेलेक्चुअल होती है,स्त्री की स्मृति अस्तित्वगत होती है, सम्पूर्ण होती है ....पुरुष किसी स्त्री को प्रेम करता है,तो उसके स्मरण में इतना ही रहता है कि मैंने प्रेम किया है,यह एक बौद्धिक स्मृति है - लेकिन स्त्री अगर किसी को प्रेम करती है,तो उसके शरीर के हर कण में यह स्मृति समा जाती है,उसके पूरे व्यक्तित्व में रम जाती है और जब स्त्री उस प्रेम का स्मरण करती है तो वह बौद्धिक नहीं होती है बल्कि इसमें पूरा अस्तित्व समाहित हो जाता है,वह पूरी की पूरी इसमें जीवंत होती है,विद्यमान होती है ....यही कारण है कि पुरुष चाहें तो कई स्त्रियों से प्रेम कर सकते हैं, जबकि स्त्रियों के लिए एकाधिक पुरुष को प्रेम करना स्वभावत: कठिन और असंभव है... इसलिए पुरुष को चाहिए कि उसका प्रेम स्त्री के प्रेम की भांति एकनिष्ठ हो तभी प्रेम के एकाकार का महत्त्व सिद्ध हो सकेगा... और मेरा व्यक्तिगत यह मानना है कि यदि कोई पुरुष-मन बिना किसी कारण से अथवा संयोग-वियोगावस्था में स्त्री की तरह अश्रु प्रवाहित करता हो तो निश्चित ही उसका प्रेम स्त्री के प्रेम से किंचित मात्रा में भी कम नहीं हो सकता.. !!
*...............क्रमशः.................*

डॉ गोविंदराम शर्मा फलवा
 प्रधानाचार्य आसावरा 
25 अप्रैल 2020

Comments

  • May 15, 2020

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